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क्या कभी

 क्या कभी झुके हो वेवजह  क्या कभी रिश्तों को  रेत सा फिसलता महसूस किया है हाथ से क्या लगा ऐसा कभी की  सबकुछ होकर भी भीख मांग रहे हो किसी से  कभी दया की,कभी सुकून चैन की बस ऐसे ही बेवजह सी। क्या कभी पैरों में गिरे हो किसी के , क्या कभी मिन्नते की है घुटनो पर बैठ कर क्या कभी आंसू बेइन्तहा बहाये है क्या कभी गुहार लगाई है रो कर। क्या कभी दिल खोल कर चीखे हो सामने किसी के  क्या कभी हार बैठे हो खुदही से। क्या कभी लगा कि अपने आप को भूल बैठे हो क्या कभी लगा कि कैसे थे और कैसे बन बैठे हो। क्या कभी तरसे हो एक मुस्कुराहट के लिए अरसे तक क्या कभी भीड़ में भी खुद को अकेले पाया है। क्या कभी दिन भर हंसाने के बाद सबको रात भर तकिया भिगोया है। क्या कभी हुआ ऐसा बस खुशिया बांट कर  अपने दामन को कांटो से सजाया है क्या कभी वफ़ा करते करते  स्वाद बेवफाई का आया है, क्या कभी खुद को खो कर किसी को पाया है। क्या कभी अपने ज़मीर को गिरवी रख तुमने गिड़गिड़ा कर कोई रिश्ता बचाया है क्या कभी चीखे हो अपने ही सुकून के लिए  क्या कभी तड़पे हो अपने ही अधिकार के लिए  क्या कभी खास होकर ,आम हुए हो। क्या कभी अपनो के लिए गुमनाम हुए ह