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"हाँ हम शर्मिंदा हैं"

हाँ हम शर्मिंदा है,कभी हम निर्भया के लिए शर्मिंदा हैं की उसके कातिल जिन्दा हैं तो कभी हम गुड़िया के लिए शर्मिंदा हैं जिसके कातिल भी जिन्दा है।कभी हरियाणा में हुए बलात्कार के लिए हम शर्मिंदा हैं तो कभी शिमला के,कभी दिल्ली मेके, तो कभी गाज़ियाबाद मके,कभी हम इसलिए शर्मिंदा हैं की अपना ही बाप बेटी को यातना देता है,कभी इसलिए शर्मिंदा हैं की हमारा शिक्षक ही हमारा शोषण करता है।आखिर क्यों न हो शर्मिंदा ।हर रोज हो रहे अत्याचारो से शर्मिंदा हैं।हम तो लड़कियो को छोटे कपड़ो में देख कर भी शर्मिंदा हैं,बस शर्मिंदगी तो तब नहीं होती जब उन छोटे कपड़ो को भी तार तार किया जाता है।हम तो तब से शर्मिंदा है जब ये समझ आ गया की हम लड़की हैं।हाँ हम शर्मिंदा हैं उस माँ पर जिसने लड़की को जन्म देने का गुनाह किया ,हम शर्मिंदा हैं उस पिता पर जिसने बड़े लाड से हमारे सारे नखरे उठा लिए।बाकि शर्मिंदगी तब बढ़ गयी जब हमने पढ़ लिख कर कुछ कर दिखने के सपने देख लिए।रेगुलर पढाई करना ,कालेज जाना ,फिर ऑफिस में पुरुषो से कंधे से कन्धा मिला कर चले तो और शर्म आई।हर जगह जब लड़कियो ने बाज़ी मारना शुरू किया तो शर्मिंदगी दोगुनी होने लगी ।अपने अधिक

ये सिर्फ मेरा जन्मदिन नहीं ह

हर साल की तरह आज भी उतने ही उत्साह से आँखे खोल कर अपनी हथेलियो को चूमा था राजश्री ने।ये दिन उसकी जिंदगी का सबसे खास दिन जो था।जिसे हमेशा से उसने अपने तरीके से जीना चाहा ।ऐसा लगता जैसे साल भर में बस एक इसी दिन पर हक़ है उसका।माँ पापा भाई बहिन की लाड़ली इस दिन जो करना चहती कर सकती थी,पूरा दिन उत्साह से भरा होता था,घर में हल्ला दोस्तों की चहलकदमी ।और हर साल इस दिन पर नए कपडे पहन ना जैसे उसूल बन गया था उसका।बचपन तो फिसल गया था रेत की तरह अब लगने लगा था ये दिन भी बस कंधो पर बढ़ी जिम्मेदारी बन गयी थी।कालेज हो या उसके बाद ऑफिस लाइफ मगर राजश्री के उसूल आज भी कायम थे इस दिन सुबह मुस्कुराते हुए आँखे खोल कर अपनी हथेलियो को चूमना और फिर सबसे पहले अपने मम्मी पापा को देखना।समय बदला,जगह बदलती गयी ,बदलती गयी जिंदगी और आते गए बदलाव अब हर जगह माँ पापा कहाँ थे सामने मगर तकिये के निचे से निकली माँ पापा की तस्वीर भी चेहरे पर सुकून देने को काफी होती।पूरा दिन खुद को खास महसूस करती राजश्री।पूरा दिन हँसते हंसाते बीत जाता और रात को कैमरा में कैद किये पल एक बार फिर चेहरे की ख़ुशी बढ़ा देते।जिंदगी में छोटे छोटे पल

एक साल बाद

कार ने जैसे ही हॉर्न दिया घर वाले ऐसे सतर्क हो गए जैसे कोई बड़ा नेता महानेता आया हो।राधिका पूरे एक साल बाद जो घर लौट रही थी।तभी वो बड़ा काला मेन गेट खुला ,सामने राधिका का पूरा परिवार खड़ा था,दीदी,जीजा,माँ,और भाई राजन गेट के खुले पल्लो को बंद कर रहा था।हमेशा ऐसे ही तो ये कार आकर इस आँगन में रूकती है ,मगर आज जैसे सब राधिका और विक्रम का स्वागत करने को उतावले हुए खड़े थे।एक साल बाद मायके आई राधिका।पिछले साल की ही तो बात है जब महीने भर रुक कर गयी थी यहां।हज़ारो दर्द सीने में भर कर।और आज हज़ारो खुशिया लेकर आई है।क्योंकि इस बार सिर्फ राधिका और विक्रम ही नहीं नन्हा मेहमान आरव जो साथ आया है।नानी के घर पहली बार।सब उसे गोद में लेले ने को बेताब खड़े है बस कार का दरवाजा मात्र खुलने की देर है।राधिका ने उतावले पन से दरवाजा खोला था,नन्हा आरव इतने लोगो को देख कर भाव विभोर हुआ जा रहा था।सब उसे बारी बारी से चूम रहे थे।राजन ने उसको सबसे पहले गोद में उठा लिया था।राधिका की माँ ,उसकी बलाए उतार रही थी पूजा का थाल लिए उनकी आरती उतार रही थी।एक साल में कितना कुछ बदल गया ।पिछले साल की ही तो बात है जब राधिका छलनि होकर ग

एयरहोस्टेज भाग-१

शीना की जिंदगी का अहम सपना पूरा हुआ था जब उसने एयरलाइन ज्वाइन की।बस एक कॉल में उसका जीवन बदल दिया था।बी ए के दूसरे साल में कदम ही रखा था जब लैंडलाइन पर आई उस एक फ़ोन कॉल ने शीना को सपनो की दुनिया में पंहुचा दिया।उस वक्त तो शीना को पता भी ना था की एयरलाइन की जिंदगी होती क्या है।एक छोटे से गांव में पली बढ़ी शीना का सपना बस इतना सा था की इंग्लिश से ऍम ए पास कर के वो कुछ खास बन जाये गाँव की लड़कियो में।हाँ रोज घर आने वाले अखबार दैनिक जागरण के पिछले पेज पर छपा कॉलसेंटर का ऐड शीना के शहर जाकर नौकरी करने के सपने में रोज एक मोती पिरो देता। उसका भी मन करता की ये सलवार सूट छोड़ कर वो भी आधुनिक कपडे पहन कर अपना व्यक्तित्व बदल दे।शहर की जिंदगी जिए।मगर गांव की सोच के चलते ये दूर दूर तक मुमकिन ना था।मगर कहते है ना  की किस्मत का लिखा कौन छीन सकता है।शीना को भी कहाँ पता था की उसका ये सपना इतनी जल्दी पूरा होगा।देहरादून के एयर होस्टेज अकादमी से इंटरव्यू के लिए आई वो कॉल जैसे शीना के लिए तोहफा बनकर आई थी।जुलाई में इंटरव्यू था,शीना ने ख़ुशी से झूमते हुए ये बात सबको बताई,मगर एक डर भी था ,कहाँ गांव की साधारण

दिन पखेरू

दिन पखेरू  15 साल कितने अजीब थे ,कभी आंसुओ की बारिश ने भिगाया,तो कभी प्यार की पवन ने सुखा दिया।हर अच्छा बुरा समय,हर सुख दुख एक दूसरे की ताकत बनकर सहते रहे।कल की ही तो बात है जब मिले थे वो दोनों।हँसने बोलने से शुरू हुई दोस्ती प्यार बन कर परवान चढ़ने लगी थी।साथ घूमना,सारा सारा दिन दोनों आजाद पंछी बनकर आसमान से बाते करते।कोई गली,कोई पार्क कोई मंदिर ना रहा होगा जिसने उनका प्यार ना देखा हो।सारे पक्षी,सारी हवाए सारी फ़िज़ाएं गवाह थी इनके बढ़ते प्यार की।अल्हड उम्र के पड़ाव में बहते ,दुनिया दारी,मान मर्यादा से बेखबर ये प्यार के पक्षी बस उड़ान भर रहे थे।द्रव्य अपने ऑफिस से तो सुविधा अपने कॉलेज से बंक मारती।दोनो पूरा दिन अनजान सुनी गलियो में घूमते।बाइक की पिछली सीट जैसे उसी के लिए बनी थी।सुविधा बांहे फैलाये द्रव्य को आगोश में भरे बैठी रहती और बाइक की हलकी गति में द्रव्य के स्वर हवा से टकरा कर सुविधा के कानो को छूते तो वो और जोर से द्रव्य से लिपट जाती।द्रव्य का हर शब्द,हर अंतरा ,हर गाना बस सुविधा के लिए होता।गाने की हर पंक्ति में वो दोनों खुद नायक नायिका की जगह तलाशते।कभी रोमांच ,तो कभी अलविदा क
बिन माँ का मायका           रसोई में काम करती माँ,बार बार अपने थके पैरो से इधर उधर भाग रही थी।आँखों में एक जल्दबाज़ी और सबको समय पर नाश्ता देंने की जल्दी।मैं अपनी चारपाई से बिस्तर से मुँह निकाल कर उनको अपनी अधखुली आँखों से झांक रही थी।29 साल बीत गए है माँ को उनकी जिम्मेदारी निभाते देख।जब से खुद को जाना उनकी एक ही समयसारणी देखि।सुबह हम सबसे पहले उठ जाना।उठते ही वो अपने हाथो में न जाने क्या झाँका करती थी अपनी दोनों हथेलिया मुंह के सामने लाकर कुछ बड़बड़ाया करती थी और फिर जमीन को छु कर हाथ अपने माथे से लगा लेती थी।धीरे धीरे हमे उसका मतलब समझ आने लगा जब हमे भी ऐसा करना सिखाया गया।फिर उठकर मुँह हाथ धोकर घर में झाड़ू लगाती माँ हमे अपने चारो तरफ दिखती और उनकी आवाज उस वक्त नींद ख़राब करती तो गुस्सा आता।उठ जाओ स्कूल नहीं जाना है।।।।चलो उठो जल्दी। रोज ये शब्द हमे हमारी नींद के दुश्मन लगने लगे थे।और हम ह्म्म्म कहकर फिर बिस्तर में चुप जाया करते।माँ तब तक नाहा कर घर में दिया जलाती, उनके कुछ मन्त्र सुनने के हम सब आदि हो चुके थे जैसे वो भी रोज के काम का एक हिस्सा था।रसोई में जाने से पहले फिर एक आवाज आ

पिता,पति,पुत्र और भाई

ये चार रिश्ते हर लड़की के जीवन के अहम् रिश्ते होते हैं जिनके साथ होने से अपनी अमीरी और न होने से गरीबी का एहसास होता है।जब तक ये रिश्ते हमारे साथ होते है तब तक शायद हम इतनी अच्छी तरह से इनकी एहमियत नहीं समझ पाते ,मगर जब तक एहमियत समझ आती है कुछ रिश्ते खो से जाते है। आज जब मम्मी की आँखों से गिरते आंसुओ ने मुझे इन रिश्तों से रूबरू कराया तो मैं भी सहम सी गयी थी ।इन रिश्तों की कमी कितनी बड़ी कमी होती है ,मैं शायद जानती थी मगर मेरी कमी मम्मी की कमी के सामने बहुत छोटी लग रही थी।पिता और पुत्र दोनों ही स्थान मेरे जीवन में खाली हैं ,मगर मेरे पिता की कमी को कही न कही मेरे नए परिवार में मिले पिता और मेरे पति ने कम सा कर दिया था,पुत्र की कमी समय के साथ पूरी होने की एक आशा में इतनी बड़ी ना लगी मगर आज जब माँ की आँखों में वो पीड़ा देखि तो दिल भर सा आया।आज जब उन्होंने अपने अकेलेपन और खालीपन का पन्ना मेरे सामने रखा तो वाकई मैं उसे पढ़ ना सकी।हमें कभी कभी लगता है की हम क्यों जी रहे हैं हमारे पास कोई ठोस वजह नहीं होती।मगर गहराई से सोचो तो हमारे अपने हमारे जीने की वजह होते हैं।आज किसी बात पर जब माँ ने मुझे क

देहरादून to चण्डीगढ़

सुबह जब अलार्म की तीखी आवाज ने मुझे उठाया तो मैं हमेशा की तरह झुंझला उठी,मगर जब टाइम पर नजर गयी तो सुबह के साढ़े पांच बज चुके थे हालाँकि ये समय मेरी लाइफ में आधी रात के बराबर था मगर आज इस वक्त उठना मेरी अपनी जरुरत था मैंने आधा मुंह अपनी चादर से निकल कर स्वाति के बेड को देखा वो तो किसी और ही दुनिया में थी।मेरी 4 ,5 आवाज के बाद बड़े अलसाये मन से बोली ,हाँ यार उठ रही हूँ ,बस एक घण्टा था हमारे पास तैयार होने को आज मुझे जॉब छोड़े 1 महीना हो गया था या यूँ कहे की मस्ती करते हुए एक महीना हो गया था।आज हमने प्लान बनाया था चंडीगढ़ जाने का वो भी बाइक से।स्वाति मेरी रूम मेट और बेस्ट फ्रेंड,मानव मेरा मेल बेस्ट फ्रेंड ,विशाल मानव का फ्रेंड और एक मैं।हम चारो तैयार थे चंडीगढ़ के लिए मगर आज मौसम ने ऐसी करवट ली,सुबह से ही तेज बारिश के आसार।मगर हम उड़ते पंछियो पर किसका जोर था ,हम भी निकल पड़े अपना एक एक बैग कंधे पर टांग कर जिसमे सिर्फ मानव और मेरे पास सिर्फ एक रेन कोट था वो भी तिरपाल जैसा ,विशाल और स्वाति के पास वो भी नहीं था।थोड़ी दूर ही निकले थे की बारिश शुरू हो गयी जब तक मजा आया हम भीगते रहे मगर अब ठण्ड का एह