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अगस्त, 2016 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

Love और Lust

Love और lust सुनकर सबके दिल में अपनी अपनी जिंदगी से जुड़े कुछ वाक्यात जिन्दा हुए होंगे।subject ही कुछ ऐसा है।जिसे जिंदगी भर love की तलाश में lust मिला होगा उसके लिए भी और जिसे lust की दुनिया में love मिल गया होगा उसके लिए भी ये एक अहम् मुद्दा होगा।आज की दुनिया में कहाँ हम पता लगा पाते हैं की जिसे हम प्यार समझ रहे हैं वो सिर्फ वासना है या जिसे सिर्फ वासना समझा वो प्यार निकला।कल बातो ही बातो में एक दोस्त ने कहा की सेक्स क्या कोई बड़ी चीज़ होती है आज कल। और मेरे मुह से अचानक ही निकल गया "हाँ क्यों नहीं,सेक्स तो बहुत बड़ी चीज़ होती है,जिसे प्यार में मिले उसके लिए भी और जिसे rape में मिले उसके लिए भी।जिन्दगी दोनों की ही बदल देता है ये सेक्स।"उस वक्त ये बस मेरे शब्द थे मगर कह देने के बाद जब मैं इन शब्दों की गहराई में गयी तो बस डूबती चली गयी।अचानक से बहुत बड़ी और बहुत गहरी बात कह गयी थी मैं। और मेरा मन तुलना करने लगा था ,जो रिश्ता एक तवायफ और एक पत्नी में होता है ,वही रिश्ता प्यार और वासना में होता है ।पत्नी के साथ bed share करते हैं तो love और एक तवायफ के साथ share करते हैं तो lust।

ना मौसम लौटा ना वो

आज 20 साल बीत गए,सुहान के भीतर बसी वो खुशबू आज भी वैसे ही महक रही थी जैसे 20 साल पहले।जिंदगी की दौड़ दौड़ते दौड़ते इतने साल लग गए सुहान को इस गली तक पहुँचने में जहाँ बीस साल पहले वो घंटो खड़ा रहता था।आज भी चश्मे के पीछे की आँखे वही सब तलाश रही थी जो वो उस दिन बिना किसी को कहे यहां छोड़ गया था।मगर आज यहां वैसा कुछ ना था ,आज ये अक्टूबर का महीना उसे वो सुकून नहीं दे पा रहा था जो वो तब हर साल महसूस किया करता था।बीस सालों से वो आज तक हर अक्टूबर को उस खुशबू को महसूस करने की कोशिश करता रहा जो वो यहां छोड़ गया था ,मगर विदेशो में शायद हिन्दुस्तान के महीनो की वो खुशबू खो गयी थी। आज सुहान उसी गली में खड़ा चारो तरफ देख रहा था ,सारे आस पास के घरो में उसे नए चेहरे दिखे हाँ जो चेहरे पुराने थे वो झुर्रियों से भरे थे,घरो का रंग बदल गया था ,लोग बदल गए थे ये कच्ची सड़के पक्की सड़को में बदल गयी थी,यहां तक की इन गलियों की हवा बदल गयी थी।उसकी नजर आज भी सामने उस दोमंजिला मकान पर टिकी थी ,उसी बालकनी पर जहां से उसे रोज वो खूबसूरत चेहरा दिखा करता था,जहां से दो बड़ी बड़ी आँखे छुप छुप कर सुहान को देखा करती थी और नजर टकरात

मगर मैं जी रही हूँ

जीना भी एक कला से कम नहीं होता दोस्तों।यूँ तो सभी जीते हैं मगर जिंदादिली से जिया जाते तो बात ही क्या।खैर जिंदगी में हर मोड़ पर एक ऐसा पड़ाव आता है जब हमे लगता है की हम नहीं जी पाएंगे,मगर हम फिर भी जीते है।कभी अपने कुछ करीबी लोगो से दूर होकर,कभी कुछ अपनी सबसे प्यारी चीज़ खोकर,तो कभी खुद किसी अलग सी दुनिया में खोकर,मगर जीते है हम ।कभी कुछ जरूरते सर उठती है तो लगता है हम इसके बिना नहीं जी पाएंगे तो कभी कुछ सपने नींद हराम करते हैं तो लगता है हम जी नहीं पाएंगे।कभी कुछ अपने पराये हो जाते हैं तो लगता हम जी नहीं पाएंगे।ऐसे ही न जाने कितने अनुभव हमारी जिंदगी से होकर निकलते है।बचपन में जब पापा ने मुझे से भी बड़ी गुड़िया लाकर दी तो पूरा दिन उसे लिए घूमती थी मैं।कोई मुझसे लेलेता तो ऐसे रोती जैस मैं इसके बिना जी ही नहीं पाऊँगी ,मगर धीरे धीरे जब वो टूटती गयी और एक दिन ऐसे टूटी की घर वालो ने ये कहकर मुझसे लेली की ये ख़राब हो गयी दूसरी लेकर देंगे।तो क्या मई नहीं जी उसके बिना, जब स्कूल में कदम रखा तो लगा पूरा दिन मम्मी पापा के बिना वहां कैसे रहेंगे ,मगर जब वहां इतने दोस्त मिले की जब farewell party हुई तो उन

खाली हाथ

आज चारो ओर खुशियों का माहोल था।श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की खुशियों ने हर हिन्दू  घर उल्लास से भर दिया था।जहाँ देखो यही चर्चा थी कि कैसे जन्माष्टमी माननी है।पुरे बाजार पीले रंग के कृष्णा के ,और लाल रंग के राधा के लहंगे चोली से सजे थे।फूल मालाये, बांसुरी,झूले और न जाने क्या क्या।हर मंदिर में झांकिया लगी थी।मेले से भी सुन्दर सजा था पूरा देहरादून।हर माँ अपने बच्चों में लिए कृष्ण के कपडे खरीदती नजर आ रही थी।फेसबुक खोला तो सब ने अपने कान्हा और राधा बने बच्चों की फ़ोटो लगाई हुई थी।सबके हाथों में उनके कान्हा सच मुच के कान्हा लग रहे थे।  वो लग रही थी उनकी यशोदा माँ। मैंने और मेरे पति ने भी मिलकर कृष्ण की एक दुनिया बनाई थी।जो वो बचपन में बनाया करते थे।रेत के ऊपर घर,फिर उसे रंगोली से सजाया था ,क्या नहीं था कान्हा के उस आँगन में।पार्क में लगे खेल,गौशाला,पेड़ वाटिका,गईया,पशु पक्षी,सैनिक,मंदिर,घर सारी चीजे,मैंने पहली बार वो सब बनाया था।फिर उसमे डाला था कन्हैया जी का झूला जिस पर वो नए कपडे पहने झूल रहे थे।अपने हाथों से बनाई वो कान्हा की दुनिया देख कर दिल खुश हो रहा था. मगर बार बार अपने उन खाली हाथों पर न

मेरा हिसाब कर दो

आज नियति की आँखे उसके मुह से ज्यादा बोल रही थी।सरे सवाल होठों की जगह आँखों में उतर आये थे।2 साल हो गए नितीश अब बस मेरा हिसाब कर दो। और नितीश जैसे अपने में ही सिमटा सा बैठा था,कैसे कर दूँ नियति का हिसाब ,इस जन्म तो मुमकिन ना हो पायेगा।मन ही मन व्यथित हो उठा था नितीश। मगर नियति जैसे आज तय कर के आई थी की आज सारे हिसाब पूरे कर के ही वापस जायेगी। आज के बाद तुम मुझे बेवफा कह लेना,कट्टर कह लेना या जो ,बदचलन कह लेना ,गिरी हुई लड़की कह लेना या फिर से मन में आये तो फिर से कह देना की मैं एक रंडी हूँ।मगर मुझे कोई फर्क नहीं पड़ेगा नितीश।आज के बाद मैं मुड़ कर नहीं देखूंगी तुम्हारी तरफ । नियति का गला भर आया था।और कितना लेकर जायेगी इस रिश्ते से।इतना कुछ तो मिला इन 2 सालो में। नितीश का प्यार गुस्से में जो बदलने लगा था ,आखिर गलती किस से हुई ।नितीश से जो नियति के प्यार में असुरक्षित महसूस करने लगा था या नियति से जो अपनी कुछ आदते न बदल पाई थी।लोगो से घुल मिल जाना आज उसकी जिंदगी में जहर घोल कर चला गया था।क्या करती वो बचपन से ईएसआई ही जिंदगी जी थी उसने।फिर करियर भी ऐसा चुना जिसमे किसी से बात करने में कोई

मैं ऐसी नहीं थी

आज फिर सोना खुद में ही चिढ कर रह गयी थी ,जब उसे अपनी ही कुछ बातो पर गुस्सा आया। कितने दिन से एक ही वाक्य उसके ज़हन में घूम रहा था कि मैं ऐसी कभी ना थी। पता नहीं कैसे ये आरोप ले बैठी ,जिंदगी भर इस आरोप का बोझ लेकर जीना होगा। कहने को आज 8 साल बीत गए उस कड़वे अतीत को ,मगर आज भी टीस उतने ही दर्द से उठती है दिल में। वो स्वार्थ था या प्यार आज तक तय ना हुआ।जब आज 8 साल बाद शेखर दिखा मॉल में ,तो अतीत ने खुद को चादर से बाहर धकेल दिया।कब से इस अतीत को भूलने की कोशिश कर रही थी सोना,मगर जब जब परी को गोद में उठाती,वो कड़वे पल दस्तक देने लगते। वो शेखर के लिए प्यार ही तो था ,जिसने सोना को स्वार्थी बना दिया था। माना की समाज ने उस प्यार को कभी स्वीकृति नहीं दी।शेखर शादीशुदा जो था।मगर सोना तो दिल से उसकी हो गयी थी ,उसे पता था की उसके इस पवित्र प्यार को अवैध का नाम ही मिलेगा।मगर दिल पे किसका जोर था। और फिर शेखर भी तो दिलो जान से चाहता था उसे।फिर क्या गलत था अगर वो उससे वो उम्मीद कर बैठी जो शेखर पूरी न कर पाया।क्या गलत था कि वो अपने प्यार के साथ किसी को बर्दास्त नहीं कर पाती थी। कितनी बार कहा था शेखर

ये तेरा घर,ये मेरा घर

आज फिर जब रक्षाबंधन का त्यौहार मना कर घर लौटी तो ,बिजनोर से देहरादून तक का पूरा सफ़र याद आया।125 किलोमीटर की इस दूरी ने जो 8 साल तय किये उसका सारा लेखा जोखा आँखों के सामने तैर गया।उस गाँव के बचपन ने इस शहर की जवानी को फिर पछाड़ दिया । कार में बैठे बैठे कब दिल की तराजू में हर चीज़ तुलने लगी पता ही नहीं चला। नहर में नहाते बच्चों को देखा तो अपने खेतों का ट्यूब वेल याद आया ,कैसे आधे अधूरे कपड़ो में घंटो उसकी धार के निचे खड़े रहते,खेतों तक पानी पहुचने के लिए बनाई नालियों में लेट कर पैर से आगे खुद को धक्का लगा कर आगे खिसक जाना खुद में ही घमंड भर देता था,जैसे  की हमे तैरना आ गया।शहर में आये तो स्वीमिंग पूल और शावर में नाहा कर भी वो सुकून न मिला जो उस वक्त नल के निचे बारी बारी से बैठ एक दूसरे के लिए नल चला कर नहाने में मिला करता था।ये कार जब आज सड़क पर दौड़ती जा रही थी तो ध्यान आई अपनी वो 22 इंच की हीरो कंपनी की साईकिल ,जिसको दौड़ा कर गर्व होता था ,की साईकिल रेस में मुझे कोई नहीं हरा सकता।आज इस कार में बैठ कर a c की ठंडक भी वो मजा न दे पाई जो उस वक्त भर दोपहर में साईकिल में पैंडल मारते हुए वो टपकता प

क्योंकि वो मेरा बच्चा नहीं था

चीकू के आजाने से जैसे घर में खुशियों की लहर दौड़ गयी थी।सब कुछ अच्छा अच्छा लगने लगा था ।आँखे खुलते ही उसे देखते और पूरा दिन उसके साथ खेल खेल कर दिन गुजरता।कोई उसे किसी नाम से बुलाता तो कोई किसी नाम से।सबकी आँखों का तारा जो बन गया था चीकू।सुबह उठते ही मेरे पास आजाता कुछ देर खेलता और खेलते खेलते सो जाता।मैं बस मंत्रमुग्ध सी उसे निहारती रहती।कभी वो सोते सोते हँसता और कभी रो देता।कभी डर कर मुझसे चिपक जाता।हज़ारो भाव उसके चेहरे पर आते और जाते।जैसे संसार भर का सुख उसके चेहरे पर निखर आता ।और मेरी आँखे उसे देखते देखते भर आती। सारी कमिया जो पूरी सी हो गयी थी उसके आजाने से। बाजार जाएं और उसके लिए कुछ न आये ये कभी न होता।उसकी हरकते दिन पे दिन अनूठी होती जा रही थी।दिल उसपे हर समय वारा जाता।उसके आजाने से घर में ख़ुशी का माहोल रहता।कभी मम्मी बोलती चीकू को ये खिलाओ कभी डैडी उसे खूब प्यार करते,सब का लाडला जो था।इतने दिनों बाद घर खुशियों से भरा था।सबकी जान बन गया था चीकू। घुटनो के बल चलना सीख गया था।पूरा दिन चीखता।जोर जोर से हँसने की किलकारियाँ अब बढ़ने लगी थी।कितनी भी थकन हो उसके हाथो का स्पर्श जब चेहर

आर्मी वाला लव

मुझे ये प्यार बहुत छोटी सी उम्र में हो गया था।जब मैं मात्र 10 साल की थी।शायद तब मुझे ये भी नहीं पता था की आर्मी है क्या।क्योंकि ये प्यार मुझे किसी शक्श से नहीं उस हरी वर्दी से हुआ था जिसका जिक्र रात दिन उन दिनों हर जगह हो रहा था।बात उन दिनों की है जब भारत और पाकिस्तान के बीच कारगिल युद्ध छिड़ गया था।मैं तब 10 साल की थी।कुछ दृश्य धुंधले से हो गये है ,कुछ बाते आज भी याद हैं मुझे।उन दिनों देर रात तक सब घर के बाहर सड़क पर खड़े रहते।जहाँ देखो उस लड़ाई की चर्चा रहती।सच कहूँ तो मुझे उस वक्त हिंदुस्तान और पाकिस्तान का फर्क भी ठीक से नहीं पता था मगर वही समय था जब से दिल में एक बात घर कर गयी थी की पाकिस्तान हमारा दुश्मन देश है,क्योंकि उसने हमारे देश के लोगो को मार दिया है।10 साल के छोटे से दिमाग में बहुत से सवाल थे मगर मैं किसी से कुछ नहीं पूछ पाई ।आज भी याद है मुझे जब मैंने मम्मी को कहते सुना था, की लड़ाई बहुत ज्यादा बढ़ गयी है जितने भी फौजी छुट्टी पर थे सब को बुला लिया गया है ।यहां तक की सुनने में आया है की 18 साल तक के लड़के जो सक्षम हैं उनको बस कुछ दिन की ट्रेनिंग के बाद फ़ौज में भर्ती किया जा रहा

शहादत और शोहरत

एक दिन मुझे शहादत और शोहरत का फर्क नजर आया , जहाँ शोहरत चमकती नजर आई ,वही शहादत सिर्फ एक शब्द नजर आया।। ये बात तब की है जब मुझे वो अजीब सी ड्यूटी सौंपी गयी। शहीदों की लंबी लिस्ट मेरे हाथों में दे दी गयी।। और कहा जाओ हर घर में उनकी जान की कीमत दे आओ । मैं सहम गया जब बोला गया हर शहीद के घर होकर आओ। आदेश था ना न हुई मुझसे,और मैं अचंभित हुआ जब वर्दी पहन के जाने को कहा मुझसे।। एक अजीब सी सनसनाहट थी मुझमें,एक अजीबी सा डर बढ़ रहा था,  कैसे जाऊंगा ये वर्दी पहन के उनके घरों में,कैसे क्या कहूँगा,ये सवाल उमड़ रहा था। एक कदम आगे चलता तो 2 कदम पीछे रख रहा था।  उसके परिवार को देखने की हिम्मत बटोर रहा था। उधेड़ बुन चल रही थी दिल में,मैं खुद में ही खो सा रहा था।। जब लौटा होश में अपने तो खुद को एक गली में खड़े पाया था। मैं उस शहीद के घर में खड़ा था जिसने अपने खून का एक एक कतरा बहाया था।।  अपनी जान गवां कर न जाने कितनी जानो को बचाया था।। मैं हिम्मत बटोर रहा था अंदर जब की,सबसे मिलने की और अपना डर छुपाने की।  एक टुटा सा घर ,बड़ा सा आँगन ,सारी दास्ताँ सुना रहा था,घर का बेटा खो जाने की।। मैंने चा

पुलिस वाले भी अच्छे होते हैं

सबसे पहले तो अपनी बचपन की सोच पर क्षमा चाहूंगी। बचपन में कितनी ही ऐसी फिल्म देखि जिनमे पुलिस वाले अच्छे रोल में नहीं होते थे।वो खलनायक की भूमिका निभाते थे।शायद तभी से मन में ये विचार घर कर गए थे की पुलिस वाले अच्छे इंसान नहीं होते।फिर जन्म भी यूपी में हुआ जहाँ कुछ चंद ही ऐसे पुलिस वाले थे जो बिना रिश्वत के अपना काम करते होंगे।जो भी हो मगर पुलिस को लेकर कुछ अच्छी छवि नहीं थी मेरे मन में।मगर एक दिन मेरी सोच मुझे गलत लगी।उस दिन कुछ ऐसा हुआ की पुलिस वालो के लिए दिल में इज़्ज़त बढ़ गयी ।और उस दिन मुझे लगा की पुलिस वाले भी अच्छे होते हैं। बात 6 अक्टूबर 2014 की है जब मेरा दोस्त कश्मीर से छुट्टी आया था।दिन में ढाई बजे थे मेरी कोचिंग तीन बजे से होती थी।घर का सारा काम खत्म करके सब को लंच करने के बाद हर रोज की तरह मैं जल्दबाज़ी में ऊपर अपने कमरे में आई थी आते ही नजर घडी पर पड़ी ठीक 2 बज कर 35 मिनट हो रही थी।आज कहीं देर न हो जाये ,,मैं मन ही मन बड़बड़ा रही थी।मैं बस पूरीतरह तैयार ही थी अपना पर्स उठा कर जाने के लिए की तभी मेरा फ़ोन बज उठा ,नंबर देखा तो नीरज का था। हेल्लो....मैंने मुस्कुराते हुए बोला

मुंह बोले रिश्ते

शाम ढल चुकी थी ,पक्षी भी अपने घरों को लौट चुके थे।मौसम ने भी रुख बदल लिया था।समीक्षा भी हर रोज की तरह अपने काम में व्यस्त थी ।रात के खाने में क्या बनाना है क्या नहीं यही उधेड़ बुन चल रही थी समीक्षा के मन में ,जब सुशांत के एक फ़ोन कॉल ने उसका चैन उड़ा दिया था। कहने को दोनों अपने अपने जीवन अलग जी रहे थे ।सुशांत और समीक्षा को अभी मिले डेढ़ साल ही हुआ था।दोनों अजनबी फेसबुक पर मिले थे बातो के सिलसिलों ने इस बात चीत को दोस्ती का नाम देदिया था।देखते ही देखते दोनों अच्छे दोस्त बन गए थे ।फेस बुक पर खूब बाते होने लगी थी।शुशांत और समीक्षा एक ही शहर में रहते थे मगर सुशांत पुलिस में कार्यरत था ।दिल्ली और पुणे कब आपस में जुड़ गए थे पता ही नहीं चला ।पुणे में शुशांत का पूरा परिवार रहता था और दिल्ली में वो अपनी नौकरी के चलते अकेला रहता ।बातो में पता चला की 2 साल पहले ही समीक्षा की शादी हो चुकी थी।और सुशान्त की सगाई को अभी कुछ ही महीने बीते थे।फेस बुक से हो कर बात फ़ोन कॉल तक पहुच गयी थी।दोनों तरफ से दोनों जिंदगी के पन्ने खुलते जा रहे थे।धीरे धीरे घर के लोगो के बीच भी ये रिश्ता पैर पसार गया था।समीक्षा को

उसने हमे saving करना सिखाया था

सेविंग करना आज के समय में जितना मुश्किल टास्क है उतना ही बड़ा टैलेंट। बहुत से लोगो से सामना होता है लाइफ में कुछ ऐसे जो सेविंग करने में एक्सपर्ट होते हैं और कुछ ऐसे जिन्हें सेविंग का मतलब ही नहीं पता। मैं और स्वाति भी उन्ही में से एक थे ।सेविंग क्या होती है हमे पता तो था मगर कैसे होती है ये नहीं पता था।वो वक्त हमारी जिंदगी का सबसे अच्छा वक्त था ।देहरादून में रहते 2 या 3 साल हो चुके थे ।उस वक्त levis में अपना सिक्का चलता था ।मैं store manager और स्वाति floor manager के रूप में कार्य रत थे ।सुबह 10 बजे आना रात को 9,30 बजे वापस घर जाना ।उस बीच न जाने कितने नए चेहरों से मिलना ।जिंदगी धीरे धीरे बांध सी रही थी और हम पैसा कमाने ,अपना फ्यूचर बनाने में इतने बिजी हो गए थे की जिंदगी जी ही नहीं पा रहे थे ।हाँ एक या दो महीने में एक बार घर चले जाया करते थे। पूरा महीने मेहनत से काम करते ,और फिर इंतज़ार होता मेहनत की कमाई का।जो month की 7 या 8 तारिख को मिला करती थी।सैलरी आने से पहले ही सारा हिसाब उँगलियों पे हो जाता।इतना room rent देना है ,इतना tiffin का देना है,ये यहाँ ,ये वहां ,राशन और बाकि सब ,और