मुंह बोले रिश्ते

शाम ढल चुकी थी ,पक्षी भी अपने घरों को लौट चुके थे।मौसम ने भी रुख बदल लिया था।समीक्षा भी हर रोज की तरह अपने काम में व्यस्त थी ।रात के खाने में क्या बनाना है क्या नहीं यही उधेड़ बुन चल रही थी समीक्षा के मन में ,जब सुशांत के एक फ़ोन कॉल ने उसका चैन उड़ा दिया था।
कहने को दोनों अपने अपने जीवन अलग जी रहे थे ।सुशांत और समीक्षा को अभी मिले डेढ़ साल ही हुआ था।दोनों अजनबी फेसबुक पर मिले थे बातो के सिलसिलों ने इस बात चीत को दोस्ती का नाम देदिया था।देखते ही देखते दोनों अच्छे दोस्त बन गए थे ।फेस बुक पर खूब बाते होने लगी थी।शुशांत और समीक्षा एक ही शहर में रहते थे मगर सुशांत पुलिस में कार्यरत था ।दिल्ली और पुणे कब आपस में जुड़ गए थे पता ही नहीं चला ।पुणे में शुशांत का पूरा परिवार रहता था और दिल्ली में वो अपनी नौकरी के चलते अकेला रहता ।बातो में पता चला की 2 साल पहले ही समीक्षा की शादी हो चुकी थी।और सुशान्त की सगाई को अभी कुछ ही महीने बीते थे।फेस बुक से हो कर बात फ़ोन कॉल तक पहुच गयी थी।दोनों तरफ से दोनों जिंदगी के पन्ने खुलते जा रहे थे।धीरे धीरे घर के लोगो के बीच भी ये रिश्ता पैर पसार गया था।समीक्षा को घर की बेटी की तरह इज़्ज़त और प्यार मिलता।उसके पति को भी दामाद का सत्कार मिलता ।घर आबे जाने का सिलसिला शुरू हुआ और सम्बन्ध प्रगाढ़ होते गए।अब ये रिश्ता सिर्फ एक लड़के और एक लड़की का नहीं रह गया था पारिवारिक बन चूका था।
एक दूसरे के लिए हमेशा खड़े रहने वाले ये दोस्त बहुत स्पेशल हो गए थे एक दूसरे के लिए और फिर समय ने अचानक करवट ली।शुशांत को एहसास हो गया था की जिस लड़की की उसे तलाश थी वो तो समीक्षा है,जैसे जीवन साथी के वो सपने देखा करता था उसका एक एक गुण समीक्षा में समाया था ।मगर अब बहुत देर हो चुकी थी समीक्षा किसी और की धरोहर जो  थी ,मगर कहते है की मन की चाल पे किसीका जोर नहीं होता ,वो जिस राह जिस दिशा चले इंसान उसके पीछे हो लेता है।
मन ही मन एहसास बढ़ने लगे थे ,शुशांत हर चीज़ में अपनी मंगेतर रजनी को समीक्षा से तोलने लगा था ।जहाँ एक तरफ समीक्षा उसे अपने लिए एक परफेक्ट लड़की नजर आती वहीं दूसरी तरफ रजनी की हर चीज़ उसकी सोच से भिन्न हो जाती।शुशांत अब परेशान रहने लगा था वो और समय चाहता था अपने जीवसन के कुछ अहम् फैसलो के लिए ।मगर यहां भी अब देर हो गयी थी ,शादी की तारिख तय हो गयी थी सब कुछ समय पर हो रहा था दो परिवार जुड़ने ही वाले थे इधर शुशांत व्यथित होता जा रहा था उसकी लुप्त हो चुकी भवबए सर उठाने लगी थी।
ये बात उसने समीक्षा से भी कही की वो अभी और समय चाहता है उसे नहीं लगता की रजनी और उसका एक सही मेल होगा ।समीक्षा ने भी यह एक सही सलाहकार की भूमिका निभाई थी ।और समर्थन किया था की अगर मन में अभी से कुछ संशय है तो अभी भी समय है की दो जिंदगियो के गलत मेल को बचाया जाये मगर कहते है जोड़ी ऊपर से बन कर आती है और ये जोड़ी तय हो चुकी थी ।समीक्षा के सामने शुशांत का पूरा परिवार एक मुह बोले रिश्ते में बंधा खड़ा था मगर छह कर भी वॉइस मामले में खुल कर अपनी राय किसी के सामने नहीं रख पाई थीं,इस समाज में एक लड़के और लड़की के रिश्ते को अलग अलग नाम देने में कहाँ किसी को देर लगती है।उसने बस सुशांत को ही बोला की ये उसकी जिंदगी है अब फैसला उसी को करना होगा ।और वो भी समाज के रस्मो रिवाज और जबरदस्ती के बनाये उसूलो में बंध कर रह गया था ,और वो दिन भी पंख लगाये उड़ कर आगया जब रजनी और शुशांत पति पत्नी के बंधन में बंध गए थे।
मगर मन तो समीक्षा में उलझा था ,अभी भी उसके मन की तराजू में समीक्षा का पड़ला भरी था ।समय बीत ता गया और शुशांत के अधिकार समीक्षा पर बढ़ते गए ।अधिकारो के बढ़ते अपेक्षाएं भी पैर पसारने लगी।शुशांत समीक्षा से हर तरह की उम्मीद लगाने लगा था ,उसकी भावनाये बढ़ती जा रही थी ,समाज में इसे अवैध करार दिया जायगा ये जानते हुए भी वो समीक्षा में खुद को जीने लगा था ।अब धीरे धीरे छोटी छोटी बातो पर इस रिश्ते में खिंचाव आने लगा था।या तो इसे शुशांत की चिड़चिड़ाहट समझ लो जो समीक्षा को अपना न बना पाने की वजह से उसमे आगयी थी।या फिर रजनी उसके लिए सही जीवनसाथी साबित नहीं हो पा रही थी उसका गुस्सा निकल रहा था ।
अब तो बात यहां तक आ पहुची थी की शुशांत असुरक्षित महसूस करने लगा था ,समीक्षा किसी भी पुरुष से बात करे उसे ये मंजूर नहीं था ,उसके इस दीवानेपन ने उसे कब एक जासूस बना दिया पता ही नहीं चला ।ये दोस्ती एक नया मोड़ ले चुकी थी ।शुशांत की अपेक्षाओं के तले समीक्षा के अधिकार और आज़ादी दबने लगी थी  ।अब बिन बताये शशांत समीक्षा पर नजर गड़ाये रहता वो कब किस से बात कर रही है क्यों कर रही है ये उसके कुछ जासूस उसे बताते रहते ,।समीक्षा भी खुद को बंधा सा पाने लगी थी  ।मगर वो समझ रही थी की ये सब शुशांत की चिंता और उसका प्यार है मगर तरीका गलत है।कहने को शुशांत दिल्ली में रहता मगर उसकी नजर चौबीस घण्टे पुणे में समीक्षा के ऑफिस पर टिकी रहती।
मगर आज की उसकी इस फ़ोन कॉल में हद पार कर दी थी ।बिना सच जाने ,बिना कुछ पूछे शुशांत समीक्षा पर बरस रहा था ।"तो अब नया बॉयफ्रेंड बना लिया तुमने?" बड़ी कर्कश आवाज में शुशांत ने समीक्षा को बोला।
"क्या?क्या मतलब है तुम्हारा? समीक्षा समझ ही नहीं पायी की ये बात आई कहाँ से।आखिर शुशांत कह क्या रहा है।
"और पागल मत बनाओ मुझे,सब पता है की आज कल कौन आता है तुमसे मिलने तुम्हारे ऑफिस जिस से घंटो बैठ के बाते होती हैं तुम्हारी। इसलिए अब मुझसे लड़ाईया करती हो कोई और जो मिल गया"। बिना कुछ समझे शुशांत आरोप लगा रहा था।
"क्या कह रहे हो तुम ?किसकी बात कर रहे हो मुझे तो ऐसा कुछ ध्यान नहीं आरहा कौन फ्रेंड बना मेरा?पागल हो गए हो क्या तुम? समीक्षा उलझे से शब्दों में बोली ,जैसे वो याद करना चाहती थी की आखिर ये किसकी बात कर रहा है।
तभी शुशांत ने उसकी सोच में दखल दिया,"तुम्हे क्या लगता है मुझे कुछ पता नहीं चलेगा।आया तो था तुम्हारा बॉयफ्रेंड तुमसे मिलने ऑफिस।मुझसे अब कभी बात मत करना तुम जैसी लड़की से मुझे कोई रिश्ता नहीं रखना ।तुम जैसी लड़की होती ही ऐसी हो।एक नहीं तो दूसरा सही।
शटअप शुशांत.....बस बहुत हुआ ,तुम क्या कह रहे हो ,मुझे कुछ समझ नहीं आरहा।
ओह कही तुम उसकी बात तो नहीं कर रहे ,जो कल मेरे ऑफिस में आया था।?समीक्षा ने जोर डालते हुए कहा।
माय गॉड क्या तुम जानते हो वो कौन है?
नहीं ,न मैं जानता हूँ न जानना चाहता हूँ।तुम रहो जिसके साथ रहना है।करो जो कुछ करना है,बस आज के बाद मुझसे मतलब मत रखना।,इतना कहकर फ़ोन काट दिया था शुशांत ने।
समीक्षा का चेहरा गुस्से से तमतमा रहा था,आखिर ये मुझे समझता क्या है?ऐसे कैसे कुछ भी आरोप लगाएगा बिना सच जाने ,मेरे परिवार के सदस्य को मेरा बॉयफ्रेंड बता रहा है।मगर ये सब इसको बोला किसने अब बस उसके दिमाग की सुई ऑफिस बॉय पर आकर टीकी।
छोडूंगी नहीं मई इस ऑफिस बॉय को ,बिना कुछ जाने इतनी बड़ी गलत फहमी पैदा कर दी हम दोनों के बीच, दांत पीसते हुए समीक्षा ने फिर से सुशांत को फ़ोन लगाया मगर उसने हर बार फ़ोन काट दिया।अब ले दे कर वो मुह बोले रिश्ते बचे थे उसके सामने जिनसे सच बता कर वो इस रिश्ते को ठीक कर सकती थी।शुशांत की माँ तो बेटी समझती है मुझे मैं माँ को सब बता दूंगी की वो गलत समझ रहा है।ऐसे कैसे वो मुझपे ऊँगली उठा सकता है?मगर उसकी माँ ने भी समीक्षा का फ़ोन नहीं उठाया।अब बस एक विकल्प बाकि था वो थी शुशांत की बहिन रेखा, रेखा को फ़ोन किया तो उसने फ़ोन उठाया।
रेखा ये शुशांत कहाँ है मेरा फ़ोन नहीं उठा रहा है।आंटी भी मेरा फ़ोन नहीं उठा रही हैं।मुझे उनसे बात करनी है ।मेरी बात कराओ।
अरे हुआ क्या तुम इतनी गुस्से में क्यों हो?पीछे से शुशांत चिल्ला रहा था की अभी फ़ोन रखो ,कोई जरुरत नहीं है इस लड़की से बात करने की ।अब समीक्षा का अफ़सोस गुस्से में बदल रहा था ,ऐसी कैसी दोस्ती है इसकी अपने परिवार के सामने मुझे जलील कर रहा है।
रेखा तुम्हारा भाई पागल हो गया गई ,पहले तो इसका मतलब क्या बनता है मुझपे नजर रखने का मेरे ऑफिस की जासूसी करने का ,और अगर कर भी रहा हैतो बिना सच जाने मुझ पर आरोप क्यों लगा रहा है?क्या कोई भी लड़का मुझसे बात करेगा तो वो मेरा बॉय फ्रेंड होगा।मेरे मायके से मेरे भाई का बेटा ,मेरा भतीजा मुझे मिलने ऑफिस आया और ये कहता है की वो मेरा बॉय फ्रेंड है।किसने हक़ दिया इसे किसी की बेटी या किसी की बहिन के लिए ऐसे अपशब्द बोलने का ,कौन है ये,क्या मेरा भाई है जो मेरी जासूसी करेगा,या मेरा पति है जो हर एक हिसाब इसे दूंगी ।आंटी से बात कराओ मेरी मुझे उनसे बात करनी है,अब समीक्षा की आवज रुअंधि हो गयी थी।गला भर आया था। रेखा ने बिना कुछ बोले फ़ोन माँ को थमा दिया था ।
हाँ बेटा कैसी है तू...एक भारी सी आवाज ने कहा था।
आंटी मुझे आपसे बात करनी है,मुझे आपसे मिलना है।आप घर पर ही हो न कल ,मैं  घर आउंगी कल सुबह।
हाँ हूँ तो घर पर ही ठीक है आजाना।ठीक है आंटी जी रखती हूँ।नमस्ते
और समीक्षा ने फ़ोन काट दिया था।उसके आंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे ,काश वो इसी वक्त वहां जाकर माँ को सब बोल दे।और पूछे उनसे की उनके बेटे ने ऐसे गंदे आरोप क्यों लगाये उस पर।
कुछ देर बाद फिर उसका फ़ोन बजा।नंबर शुशांत की माँ का था ,शायद अब सब ठीक हो जायेगा,माँ ने डाटा होगा उसे।अब हमारी दोस्ती नहीं टूटेगी।इस उम्मीद से फ़ोन उठाया था समीक्षा ने।
बेटा ,तू कल मत आना कल हमें हॉस्पिटल जाना है कल बहु घर लौट रही है बेटी को लेकर।तू कल मत आना।
आंटी मैं सुबह 9 बजे आउंगी क्या उस वक्त आपको जाना है हॉस्पिटल ?नहीं तब तो नहीं मगर ऐसा ही रहेगा कल ,बहु बेटी को लेकर कल पहली बार घर आ रही है अच्छा नहीं लगेगा ये सब ,माँ ने ये सब बोलकर समीक्षा का दिल तोड़ दिया था।इससे पहले वो कुछ कहती उन्होंने फ़ोन रेखा को थमा दिया था,
समीक्षा भैया ने जो बोला गलत बोला,उन्हें ऐसा नहीं कहना चाहिए था,मगर तुम कल मत आओ।पीछे से शुशांत चिल्ला रहा था,"मेरे घर आने की कोई जरुरत नहीं है बोल दे इसे,अगर ये आई तोसबके सामने इज़्ज़त उतारूँगा इसकी,इस जैसी लड़की को मैंने अपने घर आने दिया ,अपने परिवार का हिस्सा बनाया।,
उसकी एक एक बात दिल तोड़ रही थी समीक्षा का।
समीक्षा तुम बस कल मत आना ,कल भाभी घर आरही है बेबी को लेके।एओ पहली बार घर आएगी ,ये सब ठीक नहीं लगेगा,कल वो हॉस्पिटल से डिस्चार्ज हो रही है।
मगर रेखा मुझे बात करनी है।
हाँ कर लेना बात ,बस कल घर मत आना अगर तुमने मुझे कभी अपनी दोस्त समझा हैतो कल मत आना।
इस बार समीक्षा की रुलाई फुट पड़ी थी ,उसके शब्दों की स्थिरता जैसे गायब हो गयी थी।
ठीक है"रोती आवाज में बस इतना ही बोल पाई थी समीक्षा।
उसका कलेजा फटा जा रहा था,आखिर आज खून का रिश्ता जीत गया ,आज एक बार फिर रिश्तो की असलियत से आमना सामना हुआ मेरा।जिन्हें मैं अपना अपना कहती रही उन्होंने आज अपनों के लिए मुझे अनदेखा कर दिया।
कल उनकी बहु आ रही है उनकी पोती आरही है इसलिए उन्होंने अपनी बेटी को एक तरफ कर दिया।क्या ये रिश्ता सिर्फ बोलने मात्र था ।क्या सिर्फ दिखने जे लिए मैं उनकी बेटी और रेखा की बहिन थी।आखिर थी तो मैं एक अजनबी ही। आज तक मैं उनकी एक आवाज पर खड़ी हो जाती ,कहने भर की देर होती सब कुछ छोड़ कर पहुँच जाती उनके लिए,आज जब मुझे उस माँ और उस बहिन की जरुरत है तो वो अपनी खुशियों में मुझे बाधा समझ रहीं है।कितने निर्दयी मन से बोल दिया मुझे की कल बहु आ रही ह बेटी को लेकर तुम मत आना।
क्यों नहीं कहा की हाँ बेटा तू आजा ,और चिंता मत कर सब ठीक हो जायेगा ,मैं इसे डाँटूंगी।क्यों मुझे अपनी खुशियों का वास्ता दिया ,क्यों रेखा ने भी नहीं समझा की एक लड़की के चरित्र पर लगी चोट  में उसका मेरे साथ होना कितना जरुरी था।
समीक्षा टूट कर बिखर गयी थी फर्श पर।आज खून के रिश्ते के आगे ये मुह बोला रिश्ता हार गया था।आज फर्क सामने था की मुंह बोला रिश्ता सिर्फ मुह के बोलने तक सीमित होता है।
मन ही मन खुद को सबसे अलग कर लिया था समीक्षा ने।अब कभी लौट कर नहीं जाउंगी उन लोगों की जिंदगी में।उन्हें उनकी खुशियाँ मुबारक हों।बस अब कोई मुह बोला रिश्ता न होगा मेरी जिंदगी में।



प्रीती राजपूत शर्मा 
11 अगस्त 2016

टिप्पणियाँ

kuch reh to nahi gya

हाँ,बदल गयी हूँ मैं...

Kuch rah to nahi gaya

बस यही कमाया मैंने