मगर मैं जी रही हूँ

जीना भी एक कला से कम नहीं होता दोस्तों।यूँ तो सभी जीते हैं मगर जिंदादिली से जिया जाते तो बात ही क्या।खैर जिंदगी में हर मोड़ पर एक ऐसा पड़ाव आता है जब हमे लगता है की हम नहीं जी पाएंगे,मगर हम फिर भी जीते है।कभी अपने कुछ करीबी लोगो से दूर होकर,कभी कुछ अपनी सबसे प्यारी चीज़ खोकर,तो कभी खुद किसी अलग सी दुनिया में खोकर,मगर जीते है हम ।कभी कुछ जरूरते सर उठती है तो लगता है हम इसके बिना नहीं जी पाएंगे तो कभी कुछ सपने नींद हराम करते हैं तो लगता है हम जी नहीं पाएंगे।कभी कुछ अपने पराये हो जाते हैं तो लगता हम जी नहीं पाएंगे।ऐसे ही न जाने कितने अनुभव हमारी जिंदगी से होकर निकलते है।बचपन में जब पापा ने मुझे से भी बड़ी गुड़िया लाकर दी तो पूरा दिन उसे लिए घूमती थी मैं।कोई मुझसे लेलेता तो ऐसे रोती जैस मैं इसके बिना जी ही नहीं पाऊँगी ,मगर धीरे धीरे जब वो टूटती गयी और एक दिन ऐसे टूटी की घर वालो ने ये कहकर मुझसे लेली की ये ख़राब हो गयी दूसरी लेकर देंगे।तो क्या मई नहीं जी उसके बिना, जब स्कूल में कदम रखा तो लगा पूरा दिन मम्मी पापा के बिना वहां कैसे रहेंगे ,मगर जब वहां इतने दोस्त मिले की जब farewell party हुई तो उन्हें छोड़ते हुए इतने रोये जैसे इनके बिना जीना संभव ही नहीं ,तो क्या हम नहीं जिए उनके बिना। कुछ साल बाद मैंने डिप्लोमा एजुकेशन के लिए देहरादून आने का फैसला लिया।जब घर से बहार निकली तो पीछे मुड़कर अपनों को अपने लिए रोता देख कर लगा की ना ये मेरे बिना जी पाएंगे और ना ही मैं इनके बिना। मगर जब देहरादून की जिंदगी ने अपना रंग मुझ पर बिखेरा तो वो भी देहरादून जिंदगी का हिस्सा बन गया।तो क्या यहां आकर नहीं जी मैं।इस बीच मुझे प्यार हो चूका था।बचपन का प्यार,जब जीवनसाथी का ख्याल आता तो उसकी तस्वीर आँखों में उभर आती।घर वालो  की मर्जी और सहमति के बाद बस अपने आने वाले जीवन के सपने सिजोने लगी मगर अचानक एओ रिश्ता टूट गया,तब एक पल को लगा की उसके बिना मई जी ही नहीं सकती,मगर जब ख्याल आया अपने माता पिता का तो वो 5 साल का प्यार इन 23 सालो के प्यार के सामने फीका हो गया।तो क्या मैं नहीं जी उसके बिना।पड़ाव बदलते गए ,जरूरते बदलती गयी और बदलता गया जीवन का नजरिया,धीरे धीरे वो समय भी आया जो कट्टर से कट्टर इंसान को भी नम कर जाता है,मैं भी होने लगी विदा दुनिया के दस्तूर के हिसाब से,तब लगा अपने माँ पापा ,भाई बहिन ,अपने इस घर के बिना तो मर ही जाउंगी,मगर जब नजर गयी अपने जीवन साथी पर तो लगा यही तो है जिसके लिए दुनिया से लड़ गयी मैं, बड़ी मुश्किल से ये दूसरा प्यार आखिरी प्यार के पड़ाव पर पंहुचा है तो भला कैसे नहीं जी पाऊँगी मैं, और देखो जरा कितने सुकून से जी रही हूँ उनके साथ।कुछ ही महीने बीते थे इस खुश हाल जीवन को की अपने जीवन का पहला प्यार यानि अपने पापा को हमेशा के लिए खो दिया मैंने,बचपन से यही सोचते आये की मम्मी पापा के बिना नहीं जी पाएंगे,मगर उस हादसे बे जब हमेशा के लिए उन्हें मुझसे छीना तो लगा अब जीना मुमकिन नहीं,एमजीआर जब समय ने अपना मरहम लगाना शुरू किया ,जिंदगी ने जिम्मेदारियो को एहसास कराया तो क्या जीना छोड़ दिया मैंने, कुछ दिन बीते ,महीने बीते और लगने लगा की मैं अपनी पुरानी जिंदगी को वापस लाना चाहती हूँ ,एक हाउसवाइफ बन कर मैं नहीं जी सकती मगर देखते ही देखते 2 साल निकले और मैं बिना जॉब के बिना पुरानी लाइफ के जिन्दा रही।अब 2 साल निकले फिर तीन निकले और अब 4 निकलने को हैं ,लोगो की नजर मुझसे हर पल सवाल करने लगी थी की मैं इस वंश को कब आगे बढ़ाउंगी,मुझे भी हर पल चिंता सताने लगी ,लोगो की उठती नजर का कोई जवाब नहीं होता मुझ पर ।हर जगह जाने से डर ने लगी हूँ मै, कब कौन सवाल कर बैठे इस डर से खुद को अपने ही जीवन में कैद कर दिया मैंने।अब हर पल लगता है की ऐसे ही चलता रहा तो नहीं जी पाऊँगी मैं।मगर जिंदगी कहाँ रुकी,आज जब मुझसे छोटी उम्र के लोग ,मुझसे कम अनुभव के लोग सिर्फ इस बिना पर मुझे सलाह देने आते है क्योंकि वो मुझसे पहले माता पिता के इस रिश्ते को पा चुके तो लगता है ये सब सुनने से पहले जीवन अंत क्यों ना हो गया,आज जब कोई भी आकर मुझे मेरी कमी का एहसास करा जाता है तो लगता है बस बहुत हुआ अब और नहीं जी सकती मैं ये सब सुन सुन कर,मगर क्या वाकई अंत हुआ इस जीवन का,नहीं मैं तो जी रही हूँ।और हम सब जीते है,हम सबके जीवन में कितने पड़ाव आते है जब जीवन नीरस लगता है मगर हम फिर भी जीते हैं ,किसी भी दुःख से जीवन समाप्त नहीं हो जाता।इसलिए जितना भी जीवन है ख़ुशी से जियो।ताकि आगे जाकर जब हमे एहसास हो की पूरा जीवन हमने उन चीज़ों के अफ़सोस में बर्बाद कर दिया जो उस वक्त बड़ी लगती थी आज नहीं तो एहसास होगा की हमने इस अनमोल जीवन को व्यर्थ कर दिया।


प्रीती राजपूत शर्मा
28 अगस्त 2016

टिप्पणियाँ

kuch reh to nahi gya

हाँ,बदल गयी हूँ मैं...

Kuch rah to nahi gaya

बस यही कमाया मैंने