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             गुमनाम लेखक    मेरी हर आवाज को मैंने खुद दबा दिया था अपने जज्बातों को जिम्मेदारियों में छुपा दिया था मगर मेरी हर सांस भी लेखक बन गई थी क्योकि वक्त ने मुझे गुमनाम लेखक बना दिया था बचपन में पढाई के बोझ में दब गया हुनर मेरा और जब होश संभाला तो जिम्मेदारियों ने अपना गुलाम बना लिया   था सोचा साथ साथ अपने हुनर को तराश दूंगा मै मगर मेरे तो अपनों ने ही मौका न दिया मुझे और वक्त ने मुझे गुमनाम लेखक बना दिया था कभी घर की परेशानिया कभी बच्चों की जिम्मेदारियां कभी परिवार आकर मेरे सपनो के सामने खड़ा हो गया था अब बस कल्पनाओ में रह गया था मै एक लेखक बन कर क्योकि जिन्दगी ने कर्तव्यों का बोझ बढ़ा दिया था सब कुछ था आज पास मेरे मगर मै   फिर भी संतुष्ट नहीं था चाहत थी कुछ कर गुजरने की मगर वक्त ने बस गुमनाम लेखक बना दिया था इधर पन्ने भर रहे थे मेरी कल्पनाओं के शब्दों से उधर हर पल मै अंधेरो की गहराइयों में खो रहा था कभी अपने बच्चों   को खुश देख कर मै भूल जाता अपनी नाकाम कोशिशे और कभी अपने ही परिवार की खुशियों में खुद को अकेला पा रहा था क्योकि वक्त ने
              “अनकहे शब्द” ये अनकहे शब्द मुझे पहली बार तब सुनाई दिए , जब मै मात्र 15 साल की थी ,....किसी भी अच्छे काम में किन्नरों का आना शुभ माना  जाता है ,फिर चाहे किसी के घर में बच्चे का जन्म हुआ हो या किसी की शादी ....किन्नरों का आना तो तय होता है  ...उनका नाचना ,कर्कश आवाज में गीत गाना और उलटी सीधी बाते करना एक रस्म के तौर पर  पूरा किया जाता है ....मुझे आज भी याद है जब वो किन्नर हमारे पड़ोस में आये थे मोहल्ले के बच्चे क्या और बड़े बूढ़े क्या सब इकठ्ठा हुए थे उन्हें देखने के लिए ...और उनमे से एक मै भी थी ..मगर सबकी तरह मै उनको देख कर खुश क्यों नहीं थी ...सबको देख कर एसा लग रहा था जैसे बस अब एक खेल शुरू होगा और सबका मनोरंजन करेगा ...सब उत्साहित थे उनको देख कर, उनके कपड़ो को देख कर तरह तरह की बाते कर के एक दुसरे के कानों में कुछ कह कर हंस रहे थे ....मगर मुझे ये सब अच्छा  क्यों नहीं लग रहा था ...क्यों मुझे गुस्सा आ रहा था उनकी ये हंसी और उत्सुकता देख कर ... वो सारे किन्नर जोर जोर से गीत गा रहे थे ..उनमे से एक ढोलक बजा रहा था और उसको देख कर बाकि सब अभद्र सा व्यवहार कर रहे थे ....मेरी
             “तलाक नहीं” आज मेरा फिर आमना सामना हुआ एक एसी कडवी सच्चाई से जिसका घूंट हम सालों से पी रहे हैं मगर पचता किसी को नहीं ,आज फिर सवाल उठे मन में मगर जवाब आज भी धुंधले ही रह गये !आज फिर मेरी मुलाकात हुई एक एसी ही पीडिता से जो बिना गुनाह की सजा काट रही थी ! आज मेरा सवाल इस पुरुष प्रधानता से था ..कि कब तक ये चलता रहेगा कब तक एक स्त्री सही होकर भी गलत सहती रहेगी !एक लड़की जो समझदार है , होनहार है ,सुन्दरता से लवरेज है ,विनम्र है , संस्कारों में लिपटी हुई है ,पढ़ी लिखी है ,हर सही गलत का चुनाव करने में सक्षम है फिर भी आज क्यों वो अपने अच्छे जीवन और अधिकारों के लिए झुझ रही है ! मेरी ये कहानी आधारित है एक स्त्री की सामाजिक स्थिति पर जो न कभी बदली न बदलने की उम्मीद पर है !आज मैंने फिर से उठा कर देखा वो कच्चा चिट्टा जिसमे हजारो मुद्दे सामने आये की हमारे देश ने कितनी सफलता कितनी तरक्की हासिल की ,कितने अस्पताल बने ,कितने स्कूल बने ,कितना रोजगार बढ़ा,कितनी सड़के बनी ,मगर आज भी को हम पीछे रह गये अपनी सोच को बढ़ने में ,क्यों तरक्की नहीं हो पाई हमारी मानसिक स्थिति में?क्यों आज भी हम पुरुष
            मेरी अपनी पहचान ये सवाल अक्सर हम सबके जहन में उठता है ,जब हम सिर्फ अपने बारे में सोचते है ..कि मेरी अपनी पहचान क्या है ...मेरे मन में भी ऐसे  ही सवाल बचपन से आया करते थे ...और जब भी ये सवाल आता मुझे अपनी पहचान के रूप में अपने पापा का नाम याद आता,आखिर उन्ही के नाम से तो थी मेरी पहचान ,मगर मेरी खुद की कोई पहचान हो ये इच्छा बचपन में ही बड़ी हो गई थी मेरे दिल में ...क्योकि मैंने हमेशा देखा और सुना कि जब लड़की अपने घर होती है तो अपने पिता  के नाम से जानी जाती है,शादी के बाद अपने पति के नाम से उसकी पहचान होती है ..मगर उसके अपने नाम का क्या ?खैर मुद्दा ये नहीं था ...मुद्दा तो तब सामने आया जब मेरी शादी हुई,  हर लड़की की तरह मै भी हजारो सपने लेकर अपनी ससुराल आई आज भी मेरी अपनी पहचान बनाने का जज्बा मेरे दिल में था ,मैंने १० साल की उम्र से लिखना शुरू किया जो मेरा शौक था...कई बार सराहना भी मिली और कई बार डाट भी सुनी .लडकियों और उनके अधिकारों को लेकर मेरे मन में बहुत सवाल उठा करते थे...मैंने हमेशा बिना किसी की परवाह किये गलत के खिलाफ आवाज और कदम दोनों उठाये ...आज फिर से मेरे सामने एक च