ये तेरा घर,ये मेरा घर
आज फिर जब रक्षाबंधन का त्यौहार मना कर घर लौटी तो ,बिजनोर से देहरादून तक का पूरा सफ़र याद आया।125 किलोमीटर की इस दूरी ने जो 8 साल तय किये उसका सारा लेखा जोखा आँखों के सामने तैर गया।उस गाँव के बचपन ने इस शहर की जवानी को फिर पछाड़ दिया । कार में बैठे बैठे कब दिल की तराजू में हर चीज़ तुलने लगी पता ही नहीं चला। नहर में नहाते बच्चों को देखा तो अपने खेतों का ट्यूब वेल याद आया ,कैसे आधे अधूरे कपड़ो में घंटो उसकी धार के निचे खड़े रहते,खेतों तक पानी पहुचने के लिए बनाई नालियों में लेट कर पैर से आगे खुद को धक्का लगा कर आगे खिसक जाना खुद में ही घमंड भर देता था,जैसे की हमे तैरना आ गया।शहर में आये तो स्वीमिंग पूल और शावर में नाहा कर भी वो सुकून न मिला जो उस वक्त नल के निचे बारी बारी से बैठ एक दूसरे के लिए नल चला कर नहाने में मिला करता था।ये कार जब आज सड़क पर दौड़ती जा रही थी तो ध्यान आई अपनी वो 22 इंच की हीरो कंपनी की साईकिल ,जिसको दौड़ा कर गर्व होता था ,की साईकिल रेस में मुझे कोई नहीं हरा सकता।आज इस कार में बैठ कर a c की ठंडक भी वो मजा न दे पाई जो उस वक्त भर दोपहर में साईकिल में पैंडल मारते हुए वो टपकता पसीना दिया करता था।आज फिर नजर गयी आसमान में ।आजफिर वो धुप छाँव की दौड़ देखि जो उस वक्त हमारी रेस का हिस्सा बना करती थी ।जब उस दोपहर में सूरज सर के ऊपर होता था और अचानक छाँव आती और सरपट दौड़ती।मेरी भी साईकिल के पहिये उसका पीछा करते।मगर कुछ ही देर बाद धुप दौड़ कर आती और उसका पीछा करती।आज कार होते हुए भी दिल न किया उस दौड़ में शामिल होने का ,और आज जीत जाने दिया उस धुप को जिसे मैं हमेशा पीछे छोड़ दिया करती थी।
आज सब बदला बदला सा लगा जब मैंने अपने जीवन के पुराने पन्ने पलटे। आज जब पापाजी के पुराने दोस्त के घर कई साल बाद गयी तो वहां भी सब बदल गया था ,बस ना बदला तो उनका प्यार। प्यार से उनको चाचा जी बोला तो शहर में अपने ही चाचा ताऊ को अंकल बोलने वाले लोगो पर दया सी आई।कितने वंचित हैं वो इस एहसास से जो पापा के दोस्त को चाचा जी कहदेने से मैंने महसूस किया।आज जब दौड़ कर उन्होंने मुझे गले से लगा लिया तो मैं खुद में ही सिमट कर रह गयी ,शायद बड़े होने का एहसास था मन में।मगर जब याद आया वो बचपन ,की इसी गोद में हम कैसे दौड़ कर छुप जाया करते थे जब चाचा जी घर आया करते थे।
आज जब इतने सालों बाद उसी कच्चे मकान में बैठी तो मिटटी की खुशबू ने सारे पुराने दबे पल ताज़ा कर दिए।मिटटी के कच्चे उस घर में जहाँ फर्श की जगह हाथों से लीपकर उसे सजाया था इतना सुकून और ठंडक मिली, की शहरो में गली गली में बिछे मार्बल भी वो एहसास आज तक न दे पाये।
आज जब माँ फिर से वो खिलोनो का पिटारा खोल कर बैठी जो कुछ ही दिन पहले नागपंचमी में लगे गांव के मेले से खरीदे थे,तो मेले की भीड़ और उसमे मन में होती गुदगुदी का एहसास ताज़ा हो गया।हमारी उम्र बढ़ी,वजन बढ़ा,लंबाई भी बढ़ी,और शक्ले भी बदल गयी,मगर ना बदला तो माँ को वो मेले से खरीद कर खिलोने देने का जज्बा।दिल ख़ुशी से भर गया जब इस उम्र में भी माँ ने वो बच्चों जैसे खिलोने दिए हर साल की तरह ,तब एहसास हुआ की शहर में जाकर तो इस बचपन को भूल ही बैठे।मेले में बनती चांट और जलेबी की खुशबु दिल आज भी न भूल पाया।आज बड़े बड़े मॉल की शॉपिंग और रेस्टोटोरेंट की डाइनिंग में भी वो मजा न आया जो उस वक्त गर्मी में मेले की हर गली में घूम कर सबसे अच्छे हलवाई और चटिया की दुकान में पड़ी बैंच पर आया करता था।
गांव में जब बच्चों को वही पुराने खेल खेलते देखा ,रस्सी कूद,पाव पीटा, हे सुलतान हे मुल्तान,लंगड़ी टांग,गिल्ली डंडा,कंचे,घर घर,कोड़ा जो मार खाई,नीली परी लाल परी, gitta छुपा,पोशम्पा भाई पोशम्पा,ताश,आती पाती,आइस पाईस,और ना जाने ऐसे ही कितने खेल जो क्रिकेट,बैडमिंटन ,और या वीडियो गेम कभी उनकी बराबरी नहीं कर सकते।तब लगा की शहरी बच्चे असली खेलों से कितनी दूर हैं।
आज जब राखी के त्यौहार पर सब इकठ्ठा होकर घर में शोर कर रहे थे तब गांव के शोर और शहर के सन्नाटे का एहसास हुआ।जहाँ यहाँ हम सब मिलकर हल्ला कर रहे थे वहीँ हम चुपचाप बस त्योहोरो की रस्मो को पूरा कर देते है ।जरा सा तेज हंस कर लगता है घर का अनुशासन तोड़ दिया।
आज जब फिर से गलियो में शोर मचाया तो गांव की चहल पहल ने शहर के सूनेपन को पछाड़ दिया।शहर की गली में खड़े होकर थोड़ी तेज आवाज में बोल दे तो लगता है हम गवाँर है ,मगर यहां की गलियो के शोर ने वो बचपन याद दिलाया जब हमारे घर के बहार लड़कियों की चोकड़ी जमा करती थी।आस पास लड़के कम और लड़कियों की संख्या ज्यादा जो थी।शहर में सब अपने अपने घरो में ऐसे रहते देखे जैसे ये एक परिवार या सगे ताऊ चाचा के बच्चे नहीं कोई गैर हैं ।
आज जब सब औरतो के तेज ठहाकों को सुना तो फिर मन की तराजू ने गांव शहर को तोल दिया।वहा पड़ोस के घर में या अपनी देवरानी जेठानी के घर में भी मेहमान बनकर कपडे बदलकर आते देखा था ,सारी औपचारिकता जैसी बाते सुनी थी ।कभी कभी तो गेट पर खड़े होकर ही बाते निपटाते हुए देखा था।वहां ये अपना पन नजर ही ना आया जब कोई रिश्ता ना होते हुए भी आँगन में बैठी औरते जाती हुई औरतो को अपने घर आने का निमंत्रण देती है।किसका घर है और कौन काम में लगा है देख कर पता ही न चलता की ये सब अपने अपने निजी घरों में अलग रहते है।न कोई औपचारिकता ना कोई जबरदस्ती का हंसना।इन ठहको में बस अपना पन झलक रहा था।ऐसी ही ना जाने कितनी तुलनाएं कर बैठा मेरा ये मन।आज मुझे लगा की मुझे गांव का जीवन कितना पसंद है।सच कहूँ तो आज अफ़सोस हुआ मेरे 8 साल पहले के उस फैसले पर जो मैंने शहर जाने का फैसला किया था।क्यों मुझे भी इस शहर के दिखावे ने सम्मोहित कर लिया।क्यों मैं भी चल पड़ी इस भ्रम की दुनिया में।जहाँ शायद पैसा ज्यादा हो,या फिर सुख सुविधाये मगर अपना पन और सुकून जैसे दूर दूर तक नहीं थे।मैं लौट जाना चाहती थी उसी दुनिया में जहाँ इतने सुकून के पल मैंने जिए थे मगर जब इन कल्पनाओ और बचपन से बहार आकर अपनी सच्चाई में कदम रखा तो खुद को बहुत सारे रिश्तों से,बहुत सारी जिम्मेदारियो से बंधे पाया।एक परिवार खड़े पाया जिसका अब मैं हिस्सा थी और जो अब मेरे जीवन का हिस्सा थे।जो अब मेरे अपने थे जिन्हें छोड़ कर उन अपनों के पास उसी पुराने समय में लौट जाना नामुमकिन था।खैर बस मैं मुस्कुरा दी थी उस वास्तविकता में वापस आकर जहाँ से मुड जाना मुमकिन ना था।मगर गाँव के ये किस्से,गांव की ये यादें और गाँव की वो खुशबू हमेशा जिन्दा रहेगी मेरे मन में।
प्रीती राजपूत शर्मा
19 अगस्त 2016
आज सब बदला बदला सा लगा जब मैंने अपने जीवन के पुराने पन्ने पलटे। आज जब पापाजी के पुराने दोस्त के घर कई साल बाद गयी तो वहां भी सब बदल गया था ,बस ना बदला तो उनका प्यार। प्यार से उनको चाचा जी बोला तो शहर में अपने ही चाचा ताऊ को अंकल बोलने वाले लोगो पर दया सी आई।कितने वंचित हैं वो इस एहसास से जो पापा के दोस्त को चाचा जी कहदेने से मैंने महसूस किया।आज जब दौड़ कर उन्होंने मुझे गले से लगा लिया तो मैं खुद में ही सिमट कर रह गयी ,शायद बड़े होने का एहसास था मन में।मगर जब याद आया वो बचपन ,की इसी गोद में हम कैसे दौड़ कर छुप जाया करते थे जब चाचा जी घर आया करते थे।
आज जब इतने सालों बाद उसी कच्चे मकान में बैठी तो मिटटी की खुशबू ने सारे पुराने दबे पल ताज़ा कर दिए।मिटटी के कच्चे उस घर में जहाँ फर्श की जगह हाथों से लीपकर उसे सजाया था इतना सुकून और ठंडक मिली, की शहरो में गली गली में बिछे मार्बल भी वो एहसास आज तक न दे पाये।
आज जब माँ फिर से वो खिलोनो का पिटारा खोल कर बैठी जो कुछ ही दिन पहले नागपंचमी में लगे गांव के मेले से खरीदे थे,तो मेले की भीड़ और उसमे मन में होती गुदगुदी का एहसास ताज़ा हो गया।हमारी उम्र बढ़ी,वजन बढ़ा,लंबाई भी बढ़ी,और शक्ले भी बदल गयी,मगर ना बदला तो माँ को वो मेले से खरीद कर खिलोने देने का जज्बा।दिल ख़ुशी से भर गया जब इस उम्र में भी माँ ने वो बच्चों जैसे खिलोने दिए हर साल की तरह ,तब एहसास हुआ की शहर में जाकर तो इस बचपन को भूल ही बैठे।मेले में बनती चांट और जलेबी की खुशबु दिल आज भी न भूल पाया।आज बड़े बड़े मॉल की शॉपिंग और रेस्टोटोरेंट की डाइनिंग में भी वो मजा न आया जो उस वक्त गर्मी में मेले की हर गली में घूम कर सबसे अच्छे हलवाई और चटिया की दुकान में पड़ी बैंच पर आया करता था।
गांव में जब बच्चों को वही पुराने खेल खेलते देखा ,रस्सी कूद,पाव पीटा, हे सुलतान हे मुल्तान,लंगड़ी टांग,गिल्ली डंडा,कंचे,घर घर,कोड़ा जो मार खाई,नीली परी लाल परी, gitta छुपा,पोशम्पा भाई पोशम्पा,ताश,आती पाती,आइस पाईस,और ना जाने ऐसे ही कितने खेल जो क्रिकेट,बैडमिंटन ,और या वीडियो गेम कभी उनकी बराबरी नहीं कर सकते।तब लगा की शहरी बच्चे असली खेलों से कितनी दूर हैं।
आज जब राखी के त्यौहार पर सब इकठ्ठा होकर घर में शोर कर रहे थे तब गांव के शोर और शहर के सन्नाटे का एहसास हुआ।जहाँ यहाँ हम सब मिलकर हल्ला कर रहे थे वहीँ हम चुपचाप बस त्योहोरो की रस्मो को पूरा कर देते है ।जरा सा तेज हंस कर लगता है घर का अनुशासन तोड़ दिया।
आज जब फिर से गलियो में शोर मचाया तो गांव की चहल पहल ने शहर के सूनेपन को पछाड़ दिया।शहर की गली में खड़े होकर थोड़ी तेज आवाज में बोल दे तो लगता है हम गवाँर है ,मगर यहां की गलियो के शोर ने वो बचपन याद दिलाया जब हमारे घर के बहार लड़कियों की चोकड़ी जमा करती थी।आस पास लड़के कम और लड़कियों की संख्या ज्यादा जो थी।शहर में सब अपने अपने घरो में ऐसे रहते देखे जैसे ये एक परिवार या सगे ताऊ चाचा के बच्चे नहीं कोई गैर हैं ।
आज जब सब औरतो के तेज ठहाकों को सुना तो फिर मन की तराजू ने गांव शहर को तोल दिया।वहा पड़ोस के घर में या अपनी देवरानी जेठानी के घर में भी मेहमान बनकर कपडे बदलकर आते देखा था ,सारी औपचारिकता जैसी बाते सुनी थी ।कभी कभी तो गेट पर खड़े होकर ही बाते निपटाते हुए देखा था।वहां ये अपना पन नजर ही ना आया जब कोई रिश्ता ना होते हुए भी आँगन में बैठी औरते जाती हुई औरतो को अपने घर आने का निमंत्रण देती है।किसका घर है और कौन काम में लगा है देख कर पता ही न चलता की ये सब अपने अपने निजी घरों में अलग रहते है।न कोई औपचारिकता ना कोई जबरदस्ती का हंसना।इन ठहको में बस अपना पन झलक रहा था।ऐसी ही ना जाने कितनी तुलनाएं कर बैठा मेरा ये मन।आज मुझे लगा की मुझे गांव का जीवन कितना पसंद है।सच कहूँ तो आज अफ़सोस हुआ मेरे 8 साल पहले के उस फैसले पर जो मैंने शहर जाने का फैसला किया था।क्यों मुझे भी इस शहर के दिखावे ने सम्मोहित कर लिया।क्यों मैं भी चल पड़ी इस भ्रम की दुनिया में।जहाँ शायद पैसा ज्यादा हो,या फिर सुख सुविधाये मगर अपना पन और सुकून जैसे दूर दूर तक नहीं थे।मैं लौट जाना चाहती थी उसी दुनिया में जहाँ इतने सुकून के पल मैंने जिए थे मगर जब इन कल्पनाओ और बचपन से बहार आकर अपनी सच्चाई में कदम रखा तो खुद को बहुत सारे रिश्तों से,बहुत सारी जिम्मेदारियो से बंधे पाया।एक परिवार खड़े पाया जिसका अब मैं हिस्सा थी और जो अब मेरे जीवन का हिस्सा थे।जो अब मेरे अपने थे जिन्हें छोड़ कर उन अपनों के पास उसी पुराने समय में लौट जाना नामुमकिन था।खैर बस मैं मुस्कुरा दी थी उस वास्तविकता में वापस आकर जहाँ से मुड जाना मुमकिन ना था।मगर गाँव के ये किस्से,गांव की ये यादें और गाँव की वो खुशबू हमेशा जिन्दा रहेगी मेरे मन में।
प्रीती राजपूत शर्मा
19 अगस्त 2016
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