बिन माँ का मायका
          रसोई में काम करती माँ,बार बार अपने थके पैरो से इधर उधर भाग रही थी।आँखों में एक जल्दबाज़ी और सबको समय पर नाश्ता देंने की जल्दी।मैं अपनी चारपाई से बिस्तर से मुँह निकाल कर उनको अपनी अधखुली आँखों से झांक रही थी।29 साल बीत गए है माँ को उनकी जिम्मेदारी निभाते देख।जब से खुद को जाना उनकी एक ही समयसारणी देखि।सुबह हम सबसे पहले उठ जाना।उठते ही वो अपने हाथो में न जाने क्या झाँका करती थी अपनी दोनों हथेलिया मुंह के सामने लाकर कुछ बड़बड़ाया करती थी और फिर जमीन को छु कर हाथ अपने माथे से लगा लेती थी।धीरे धीरे हमे उसका मतलब समझ आने लगा जब हमे भी ऐसा करना सिखाया गया।फिर उठकर मुँह हाथ धोकर घर में झाड़ू लगाती माँ हमे अपने चारो तरफ दिखती और उनकी आवाज उस वक्त नींद ख़राब करती तो गुस्सा आता।उठ जाओ स्कूल नहीं जाना है।।।।चलो उठो जल्दी।
रोज ये शब्द हमे हमारी नींद के दुश्मन लगने लगे थे।और हम ह्म्म्म कहकर फिर बिस्तर में चुप जाया करते।माँ तब तक नाहा कर घर में दिया जलाती, उनके कुछ मन्त्र सुनने के हम सब आदि हो चुके थे जैसे वो भी रोज के काम का एक हिस्सा था।रसोई में जाने से पहले फिर एक आवाज आती।।अब उठ जाओ लेट हो जायगा। और हम ढीट बच्चों की तरह फिर सुन कर अनसुना सा कर जाते।रसोई में खड़कते बर्तन और खाने की खुशबु भी जैसे रोज के काम में शामिल थी।अब माँ की नहीं पापा जी की तेज आवाज हमे झट से उठा देती जब रात भर की शिफ्ट कर के सुबह 6.30 बजे वो आते ,और आते ही एक तेज आवाज लगाते, अभी तक सो रहे हो,स्कूल नहीं जाना,बहुत गलत बात है बेटा, चलो उठो अब।हम भी बिना कुछ कहे पापा जी नमस्ते कह कर उठ खड़े होते।माँ फिर भी अपने काम में लगी रहती बस पापा को देख कर एक हलकी सी मुस्कान उनके चेहरे पर उभर आती जैसे ये उनका वेलकम बैक कहने का तरीका था।समय से हमारे टिफिन बांध जाते ,नाश्ता थाली में सज जाता,और जब स्कूल के लिए कदम रखते हर रोज की तरह फिर वही नपा तुला वाक्य सुनते।सब रख लिया न बैग में,कुछ छूटा तो नहीं।और हम पीछे मुड़कर कह देते हाँ रख लिया।पूरा दिन निकल जाता जब वापस आते तो माँ फिर हर रोज की तरह अपनी चारपाई पर अपनी साड़ी से मुँह ढके लेटी मिलती।उनकी थकान का अंदाज़ा उनके शिथिल पड़े शरीर को देख कर लग जाता।मेरे कदमो की गति खुद धीमे होजाती और मैं अपने भाई को इशारा कर के कहती की शोर नहीं करना मम्मी सो रही हैं।हम दबे पांव सारे काम निपटा लेते,हमे पता होता था की मम्मी तो हमारी आहट से कब की जग गयी मगर हम उनको कभी आवाज ना देते।फिर वो नींद भरी आवाज से कहती ,खाना लगा दूँ बेटा। उस वक्त बस यही लगता की वो क्यों उठ गयी सोती रहती।फिर हम स्कूल का काम करते और वो पास बैठ कर कुछ ना कुछ बुनती रहती।जैसे उनके पास ना बैठने से हम पढ़ाई नहीं करेंगे।हमारा काम ख़त्म होता और उनका काम शुरू।पढ़ते पढ़ते  जैसे ही 4.30 बजते वो फिर रसोई में जा पहुचती चाय बनाने।चाय का काम ख़त्म न होता की रात का खाना बनाना शुरू ,बीच बीच में इधर उधर के काम निपटाती माँ कभी न थकने वाली मशीन लगती।उस बीच कोई पड़ोस की औरत आजाये तो उसका स्वागत ऐसे करती जैसे बड़ी बेसब्री से उसका इंतज़ार कर रही थी।कभी चेहरे के भाव से ऐसा न लगता की बेवक़्क़्त के आगमन ने उनका सारा काम पीछाड़ दिया।खैर हम सब को समय से खिला पिला कर सारा काम ख़त्म करके फिर से हमे सोने से पहले दूध के गिलास थमाना वो कभी नहीं भूली।फिर जब तक हम पढ़ाई करते हमारे पास बैठ कर बुनती रहती।पढ़ते पढ़ते हमारी आँखे बोझिल होने लगती मगर माँ अभी भी ऐसे ही दिखती ।ना जाने कब वो सोती होगी बस जब पीछे लेट ती तो हर रोज हे  राम,हे मेरे प्रभु बोलती।मैं हमेशा सोचती इतना काम करती है माँ।पूरा दिन थकती है फिर भी भगवान पर गुस्सा नहीं आता।फिर भी उनको इतने अच्छे से याद करके सोती हैं।
हर रोज यही दिन चर्या देख कर हम बड़े होने लगे थे।उनकी आँखे हर रोज रसोई में खुलती और देर रात रसोई में ही बंद होने लगती।हमने भी लड़की होने की जिम्मेदारी सीखनी शुरू कर दी थी। उम्र के पड़ाव बदलने लगे थे,और हमारी जिंदगी भी।देखते देखते हम अपनी अपनी नयी गृहस्थी में चले गए थे।नया घर ,नए लोग,बस नया ना लगा तो बहु बन जाने के बाद की जिंदगी,क्योंकि वही जिंदगी तो माँ बचपन से हमारे सामने जी रही थी।हमे भी समझ आने लगा था की उनकी जिंदगी का अर्थ अब सिर्फ परिवार बन कर रह गया था।शादी को 3 महीने ही हुए थे की हमने अपने पापा को खो दिया था ,मगर माँ को देखकर लगा जैसे सिर्फ उनका साज श्रृंगार ही नहीं जीवन भी छिन गया था।अब पहली बार माँ को इतना थका देखा की बिस्तर से उठ पाना भी मुश्किल था उनके लिए क्योंकि ये थकान सिर्फ शरीर की नहीं बल्कि मन की थी,मगर कुछ दिनों बाद वो फिर उठ खड़ी हुई शायद हम बच्चों की जिम्मेदारी ने अभी भी उनको थकने की अनुमति नहीं दी थी।हम सब भी लौट गए अपने अपने ससुराल ,घर में पापा की यादें और अपने फ़र्ज़ समेटने में माँ खुद को लगाये रहती।अब सारा भार,सारी जिम्मेदारी चार से दो कंधो पर जो आआगयी थी।अब कभी कभी मायके आना होता,माँ पूरी तरह बदली नजर आती,उनका शरीर खाली सा नजर आता,क्यों ना दिखती वो आधी अधूरी सी।शरीर से हलकी जो गयी थी।बदन से उतरे गहनों ने उनको खाली सा कर दिया था।ले दे कर बची थी तो बस हाथो में पड़ी दो दो चुडिया,जो समाज के कुछ रिवाज़ों की वजह से थी।आँखों का खाली पन भी कहा छुप पता था रो रो कर आँखे सफ़ेद सी हो गयी थी,अब माँ वो ना थकने वाली मशीन नहीं लग रही थी ,उनका अंग अंग थका सा था ,मगर मायके के नाम पर अब हम बेटियों के लिए एक वो ही तो रह गयी थी शायद इसीलिए वो आज भी अपनी उसी दिनचर्या में बंधी थी,हंस भी रही थी ,काम भी कर रही थी,मगर खुद में ही खोय रहने की उनकी नयी बीमारी ने उनके अकेले पन को छुपने ना दिया।हम भी आते ,कुछ दिन माँ के साथ रहते और चले जाते,हम तो चले जाते अपने भरे पूरे परिवार में मगर माँ फिर वहीं खाली चार दीवारो के बीच रह जाती।जाते हुए जब भी पलट कर देखा उनकी आँखे हमेशा बोलती नजर आई।चेहरे पर विदा करने वाली औपचारिक मुस्कान होती मगर आँखे कहती की रुक जाओ ,मत जाओ मैं अकेले रह जाउंगी,मेरा मन नहीं लगता।मगर सबकुछ सुनने और समझने के बाद भी हम निर्दयी बनकर लौट जाते अपनी दुनिया में।माँ का अकेला पन किसी से नहीं छुपा था,भाई अपने काम पर जाता और माँ घर के काम में लगी रहती,काम भी कितना बढ़ता दिन में कभी कुछ समय के लिए तो काम को खत्म होना ही होता तो बस फिर उनकी बिछड़ी यादें आती साथ देने।
ले बेटा चाय........माँ मेरे सामने खड़ी थी,स्टील के गिलास में चाय लिए,जैसे पिछले 15 दिन से हर रोज मुझे देती है दिन की पहली चाय बिस्तर पर।मैं कब से बिखरी सी पड़ी थी माँ की जिंदगी के इन पन्नों में,मगर उनकी इस स्नेह भरी आवाज ने मुझे फिर से समेट कर वही निर्दयी बेटी बना दिया था जो उनकी हालात,उनका ये अकेला पन देख कर भी कुछ दिन बाद उनके रो रो कर याद करने को अपनी यादें छोड़ कर चली जायगी।मुझे घृणा हो रही थी खुद से।की क्यों आते है हम कुछ दिन के लिए उनकी सारी आदते बदल देने,क्यों कुछ दिन उनका अकेला पन ख़त्म करने जबकि वो उसकी आदि हो चुकी हैं।क्यों उनको रुलाने चले आते है।कुछ दिन में उनकी सारी आदते बदल देते है।चुप रहने की,अकेले में रोने की।सोचते सोचते कब मेरी आँखों ने बरसना शुरू कर दिया जब अचानक मेरे दिल ने माँ के बिना इस घर की कल्पना की।क्या होगा जब माँ भी नहीं होगी,क्या होगा हम इस घर में आएंगे और दरवाजे पर बांहे फैलाये माँ ना दिखेगी,क्या होगा जब हमारे आते ही माँ का वो खिलखिलाता चेहरा ना दिखेगा।रसोई में माँ की जगह भाभी दिखेगी,माँ के कमरे में बस उनकी तस्वीरें नजर आएँगी वो नहीं।घर के कोने कोने में बसी उनकी दिनचर्या को भाभी पूरा करती नजर आएगी।सबकुछ होकर भी कितना खाली होगा ये घर जब माँ नहीं होगी।नहीं नहीं ऐसा नहीं होगा।मेरी आँखे झर झर बह रही थी।कितनी पीड़ा दयाक है ये कल्पना मगर है तो सच ही।कभी तो आयेगा ही ये समय।मगर कितना पीड़ा से भरा होगा वो समय।मन किया जाकर माँ के गले से लग जाऊं और बोलू उनको की तुम कभी कही मत जाना हमे तुम्हारी जरुरत है।पापा की कुछ कमी तुमने पूरी की है मगर तुम्हारी कमी कभी पूरी ना हो सकेगी।हमे हमेशा इस घर में तुम चाहिए मम्मी।बिन माँ का मायका देखने का साहस नहीं है।मगर मैं कुछ ना कर पाई,कुछ ना कह पाई बस चुप चाप इधर उधर काम निपटाती माँ को भरी आँखों से देखती रही।
प्रीति राजपूत शर्मा
3 फरवरी 2017

टिप्पणियाँ

kuch reh to nahi gya

हाँ,बदल गयी हूँ मैं...

Kuch rah to nahi gaya

बस यही कमाया मैंने