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अप्रैल, 2025 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मैं प्यार

 मैं एक एक कर के सबके पास गया। किसी ने मुझे दूर से देखते ही बाहें खोल दी और किसी ने ,दरवाजा मेरे मुंह पर ही बंद कर दिया। मैने बहुत बार खटखटाया, एक बार ,अंदर तो आने दो , इस बार ऐसा कुछ नही होगा जिस से तुम्हे तकलीफ हो मगर उसने मेरी एक ना सुनी। मैं थक हार कर फिर वही लौट जहा अभी  कुछ देर पहले ही मैं उसे रुला कर आया था  मैने बोला आजाऊँ क्या, वी मुस्कुराई और मुझे आने दिया। वो शायद जानती भी थी ,मैं फिर जाऊंगा  उसे और दर्द देकर ,पता नही क्यों वो फिर भी  मेरे साथ रहना चाहती थी। मुझे क्या  मैं भी रुक गया उसके घर ,। वही सिलसिला फिर शुरू हुआ साथ रहना,साथ हंसना,साथ घूमना,बहुत सारी बाते करना एक दूसरे पर आंख बंद विश्वास ,और जान लुटाना वो भी बहुत खुश थी ,आखिर कौन ना होता लेकिन एक दिन अचानक  फिर मुझे किसी और ने आवाज दी। मैं रह ना पाया मुझे जाना था,कैसे भी  मैने बहुत बहाने बनाये ,उसमे बहुत कमिया निकाली उसको बहुत बार नीचा दिखाया, बहुत सारी साथ ना रह पाने की वजह बताई  वो फिर रोने लगी ,गिड़गिड़ाई अपना आत्मसम्मान,अपनी आबरू,अपनी रूह सब सौपी थी उसने मुझे । मगर ना जाने...

खिन्नता क्या होती है

 अपने ही  गालों पर मारे अनगिनत थप्पड़, अपने ही बाल नोच दिए  उसके अपने ही नाखून उसके हाथों, पैरों और नजाने शरीर मे कहाँ कहाँ गड़े मिले सर में पड़े नीले निशान  रूखे पड़े थरथराते होंठ, ऐंठी ज़बान ,और पीला सुस्त पड़ा चेहरा। आँखों की खत्म नमी, आंसू बनकर कबतक लुढ़की गालों पर हाथों पैरों की झनझनाहट बढ़ी हुई लगी। सांस लौट कर आने में देर करने लगी , धड़कन रुकी सी,थक कर चुप होती सी। वो तोड़ा मरोड़ा तकिया गवाह बना जिसमे उसके नाखून घुसे  बेचैन रात ,दुखते करवट जो बदल कर भी सुकून न मिला दिमाग की नसें आपस मे उलझ गए , सारा खून माथे की लकीरों में सिमट आया। कांपती उंगलिया और कुछ बड़बड़ाते होंठ शांत हो गए  सब शून्य ,सब शून्य ,अंधेरा काला तिलमिला सा दिमाग मे धप धप लगते शब्द और शब्दो की चोट दिमाग पर झिंझोड़ा सा कम्बल और बिस्तर की उलझी चादर भीगा तकिया,और सिली जुबान अगली सुबह  सबने पूछा इतना खुश कैसे रहती हो। बस किस्सा खत्म हुआ उस खिन्नता का जिसे  हम तुम depression कहते हैं। और एक फीकी मुस्कुराहट ने बीती रात फीकी कर दी।