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मैं लौट आयी थी,

 मैं लौट आयी थी,  हाँ मुश्किल तो था, आगे बढ़ जाने के बाद  पीछे लौट आना  मगर इस बार ज़रूरी लगा  क्यूंकि इस बार सवाल किसी और से नहीं  मेरे खुद मुझसे थे.  बड़ा आसान था आज तक सवाल करना  की क्या वो मेरे लायक हैं ?  खुद पर इतराना, या फिर उनमे कमियां ढूंढ  लेना  इस बार मुद्दा अलग था,  मेरी परख खुद से थी, उस से नहीं  मेरा किरदार, मेरा रवैया, मेरा व्यवहार  मैंने सब रखे तराज़ू में,  और मैं हैरान थी,  मेरा किरदार तो भरा हुआ था,  गलतियो से, कमियों से, बेरुखी से  आज लगा की मैं ही लायक नहीं थी उनके  आखिर क्या चाहिए था मुझे ? प्यार ? वो तो भरपूर था  लगाव ? वो तो खुद से ज्यादा मेरे लिए परोसा गया था  सम्मान  ? वो तो शायद सबसे ज्यादा मेरे लिए रखा गया था  फिर क्या था, जिसकी कमी मुझे खल रही थी  शायद कुछ भी नहीं.  फिर किस लिए और क्यों ही रुक जाती बार बार सबकी जिंदगी में तकलीफ भरने  क्यों ही रुक जाती,  उसको परेशां करने  क्यों ही रुक जाती, उसका सुकून और चैन छीन  लेने...

मैं खुद से मिल रही थी

मैं धीरे धीरे खुद को खो रही थी   और मुझे लगता रहा की मैं मनमानी हो रही हूँ,  अब मुझे अपने आस पास सब बोझ लगने लगे थे  और मुझे लगता रहा की मैं सीमित हो रही हूँ .  धीरे धीरे मेरे रिश्तें कम होने लगे  और मुझे लगता रहा की मैं मतलबी हो रही हूँ,  समय बीता और मैं एकांत प्रिय हो गयी  मुझे लगा सब मुझसे दूर हो रहे हैं.  धीरे धीरे सब का साथ मुझे चुभने लगा  और मुझे लगता रहा सब व्यस्त हो गए हैं  कब मुझे अँधेरे में रहना भाने  लगा पता नहीं लगा  और मुझे लगा मेरी पसंद नापसंद शायद बदलने लगी है  कब मुझे हम से मैं होना अच्छा लगने लगा  और मुझे लगता रहा मैं सुकून में जी रही हूँ  सच तो ये था की मैं खुद को खो रही थी,  शायद मैं खुद से मिल रही थी  शायद मैं खुद की हो रही थी  प्रीति राजपूत शर्मा  27जून 2025