मैं खुद से मिल रही थी

मैं धीरे धीरे खुद को खो रही थी  

और मुझे लगता रहा की मैं मनमानी हो रही हूँ, 

अब मुझे अपने आस पास सब बोझ लगने लगे थे 

और मुझे लगता रहा की मैं सीमित हो रही हूँ . 

धीरे धीरे मेरे रिश्तें कम होने लगे 

और मुझे लगता रहा की मैं मतलबी हो रही हूँ, 

समय बीता और मैं एकांत प्रिय हो गयी 

मुझे लगा सब मुझसे दूर हो रहे हैं. 

धीरे धीरे सब का साथ मुझे चुभने लगा 

और मुझे लगता रहा सब व्यस्त हो गए हैं 

कब मुझे अँधेरे में रहना भाने  लगा पता नहीं लगा 

और मुझे लगा मेरी पसंद नापसंद शायद बदलने लगी है 

कब मुझे हम से मैं होना अच्छा लगने लगा 

और मुझे लगता रहा मैं सुकून में जी रही हूँ 

सच तो ये था की मैं खुद को खो रही थी, 

शायद मैं खुद से मिल रही थी 

शायद मैं खुद की हो रही थी 

प्रीति राजपूत शर्मा 

27जून 2025

टिप्पणियाँ

kuch reh to nahi gya

हाँ,बदल गयी हूँ मैं...

Kuch rah to nahi gaya

बस यही कमाया मैंने