मैं लौट आयी थी,
मैं लौट आयी थी,
हाँ मुश्किल तो था, आगे बढ़ जाने के बाद
पीछे लौट आना
मगर इस बार ज़रूरी लगा
क्यूंकि इस बार सवाल किसी और से नहीं
मेरे खुद मुझसे थे.
बड़ा आसान था आज तक सवाल करना
की क्या वो मेरे लायक हैं ?
खुद पर इतराना, या फिर उनमे कमियां ढूंढ लेना
इस बार मुद्दा अलग था,
मेरी परख खुद से थी, उस से नहीं
मेरा किरदार, मेरा रवैया, मेरा व्यवहार
मैंने सब रखे तराज़ू में,
और मैं हैरान थी,
मेरा किरदार तो भरा हुआ था,
गलतियो से, कमियों से, बेरुखी से
आज लगा की मैं ही लायक नहीं थी उनके
आखिर क्या चाहिए था मुझे ?
प्यार ? वो तो भरपूर था
लगाव ? वो तो खुद से ज्यादा मेरे लिए परोसा गया था
सम्मान ? वो तो शायद सबसे ज्यादा मेरे लिए रखा गया था
फिर क्या था, जिसकी कमी मुझे खल रही थी
शायद कुछ भी नहीं.
फिर किस लिए और क्यों ही रुक जाती
बार बार सबकी जिंदगी में तकलीफ भरने
क्यों ही रुक जाती,
उसको परेशां करने
क्यों ही रुक जाती, उसका सुकून और चैन छीन लेने
इसीलिए मैं लौट आयी
क्युकी मेरी मांग वो थी, जिसका जिक्र पहले करना भूल गयी
मेरी मांग वो थी, jiska कभी एहसास करा नहीं पायी
मेरा दिल शायद पुरानी कल्पनाओं से घिरा था
मुझे वो वो पुराना समय याद आ रहा था
मैं वही पुराने किस्से ढूंढ रही थी
उसकी वही बेताबी ढूंढ रही थी
वही प्रयास, वही कोशिशे, वही एहसास तलाश रही थी
मगर मैं भूल गयी थी की वो समय जा चूका था
और गया हुआ समय कहाँ वापस आता है
मैं निर्मम, सी, जाने क्यों पत्थर बन रही थी
और धीरे धीरे मैं चुप्पी चुन रही थी
क्यूंकि पत्थर कहां बोलते हैं.
बस इसीलिए मैं लौट आयी थी
कहां आसान था साथ चलने के बाद
अकेले लौट आना
मगर मैं लौट आयी थी
इस बार सबके लिए, रुकना नहीं, चले आना सही लगा
बस इसीलिए मैं लौट आयी थी
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