कर्म बोझ
मै हर रोज उसे देखा करती थी ..हर रोज ठीक 8.50 मिनट पर वो मुझे उस रेड सिग्नल पर दिखता था ...एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति जिसकी उम्र यही कोई 45 या 50 साल रही होगी या फिर ये कहे की उसकी हालत उसके अधेड़ दिखने  की जिम्मेदार थी . जो भी था मै अपनी एक्टिवा पर होती थी और वो सामने से आ रहा होता था ..मेरी नजर उसपर सिर्फ कुछ सेकंड्स के लिए टिकती थी मगर वो कुछ सेकंड्स उसकी सारी कहानी कह दिया करती थी ...वो सावंला सा आदमी ..या फिर धुंधला सा कहें ,मध्यम ऊंचाई का शरीर और भरी भरकम सा दिखता था ...शायद कोई भिखारी था वो या फिर पागल ..मुझे कभी उसकी हरकत पागलो जैसी लगी नहीं मगर उसकी हालत देख कर लगता की वो मानसिक संतुलन से ठीक नहीं है ..उसके चेहरे पर हर रोज मुझे एक ही जैसे भाव दिखा करते थे जैसे कितना मीलो चल कर आ रहा था वो एक थका हुआ सा चेहरा ..माथे पर सिलवटे जैसे किसी गहरी सोच में चलता था वो ...दुनिया से बेखबर सा ..जैसे हजारो सवाल एक साथ दस्तक देते थे उसके मन में ..जब भी वोमुझे दिखता मेरा पूरा ध्यान उसकी व्यवस्थित कम्बल पर जाता ...वो अपनी बहुत साड़ी कंबलो से ढका होता था ..मगर अस्त व्यस्त तरीके से नहीं उसकी सारी कम्बल एक अच्छे तरीके से तह बनी होती थी जिसे वो अपने एक कंधे पर सजा कर रखता था ...एक हाथ में एक डंडा होता था और एक झोला टंगा होता था ,...उसे देख कर लगता था की बहुत दूर से पैदल चल कर आ रहा है ...मेरे मन में काफी सवाल होते थे की ये समय सुबह का है ..फिर सुबह की ताजगी इसके चहरे पर क्यों नहीं दिखती एसा लगता था वो रात दिन बस चलता है ..उसका शरीर कुछ झुका सा रहता था जैसे बहुत थका हुआ है मगर हाँ मैंने उसके चेहरे पर कभी थकान  के चिह्न नहीं देखे ...पूरा रास्ता यही सोच कर निकल जाता था मेरा की आखिर वो कौन है ...एक भिखारी जो जीवन यापन के लिए ये रोज की दूरी तय करता है या फिर एक पागल जिसे पता ही नहीं की वो कहाँ जा रहा ह क्यों जा रहा है ....मै हमेशा से एक समाज सेविका बनना चाहती थी और उसकी पहल मै बहुत छोटी उम्र से कर भी चुकी थी ...सर्दियों का मौसम था मै हर रोज अपनी एक्टिवा में 2 कम्बल लेकर घर से निकलती थी और पूरे रास्ते मेरी नजर एक जरुरत मंद को तलाशती थी जिसे वाकई उस कम्बल की जरूरत हो...हर रोज मेरे मन में आता की मै ये कम्बल उस आदमी को दू मगर अगले ही पल मेरी नजर उसके कम्बलों से लदे कंधे पर जाती तो लगता इसे क्या जरुरत और सच कहूँ तो डरती थी मै की अगर ये पागल है और इसने मुझे मार डाला ....तो....हर रोज मेरे मन में आता की मै रुक कर पूछु उस  से की वो कौन है कहाँ जाता है रोज ...क्या चाहिए उसे ,,...मगर मेरी कभी हिम्मत नहीं हुई ...मगर ये सच है की जिस दिन वो मुझे नहीं दिखता उस दिन मेरी आँखे उसे तलाशती है और मै सोचती हूँ  कि क्या उसे अपनी मंजिल मिल गई होगी ..क्या वो अपनी मंजिल के लिए रोज ये दूरी तय करता है या फिर ये उसका कोई कर्म बोझ है ..जिसे वो रोज मीलो चल कर ढोता है या फिर कोई कर्म सजा जिसे वो रोज काटता है ....ये सवाल बस सवाल बन कर मेरे दिल में रह गये और मैंने वो ऑफिस छोड़ दिया ....मगर आज भी मुझे लगता है की मुझे उस से बात करनी चाहिए थी ..अगर ये कर्म बोझ था तो मै कुछ नहीं कर सकती थी मगर यदि कोई और परेशानी थी तो क्या पता मै उसकी मदद कर पाती!बस यही कहना चाहूंगी आप सब से की एसा नहीं है की हम जो करते है उसकी सजा हमें नहीं मिलती ,,उसकी सजा हमें जरुर मिलती है इसलिए अपने कर्म अच्छे  रखो ताकि कभी हमें वो कर्म बोझ न उठाना पड़े ..
                                                   प्रीति राजपूत शर्मा

                                                      28 jan 2016

टिप्पणियाँ

kuch reh to nahi gya

हाँ,बदल गयी हूँ मैं...

Kuch rah to nahi gaya

बस यही कमाया मैंने