मैं अब थकना चाहती हूं
बस बहुत हुआ,अब मैं रुकना चाहती हूं।
तुम जो भी सोचो ,लेकिन अब मैं थकना चाहती हूं।
साल के ये 364 दिन भूलना चाहती हूं
क्योंकि उस बचे हुए एक दिन को मैं जीना चाहती हूं।
कभी सुबह देर से उठूं।रजाई से थोड़ा झांकना चाहती हूं।
आज नही उठना मुझे ,और सोना है कहकर
फिर से रजाई में छुपना चाहती हूं।
मैं अब थोड़ा रुकना चाहती हूँ।
थोड़ी लापरवाह,थोड़ी बेपरवाह,थोड़ी खुदगर्ज होकर
बस अपना सोचूं ,दुनिया भूलूँ ,मैं खुद के लिए जीना चाहती हूं।
बस अब मैं थोड़ा रुकना चाहती हूं।
दिन भर के काम की थकान ,और फिर जिम्मेदारियों को अनदेखा कर
कभी रॉब से हर काम को मना कर ,मैं थोड़ी बुरी बन जाना चाहती हूं
अब इस सिलसिले पर विराम चाहती हूं।
क्योंकि मैं अब थकना चाहती हूं।
सबको खुश कर पाऊं ये कहाँ संभव,
सबकी उम्मीदों पर खरा उतर जाऊं ,ये कहाँ संभव,
मैं अब सबको रूठने देना चाहती हूं।
अब मैं रुकना चाहती हूं।
कभी कोई एक कप चाय पिला दे,
खाना नही तो मैगी खिला दे।
बस इस जबान का स्वाद बदलना चाहती हूं।
अब मैं थकना चाहती हूं।
कभी रुठ जाऊं मैं भी,
कभी वेवजह नखरे करूँ।
कोई अधूरा हो मेरे बिना ,मैं खास बनना चाहती हूं।
अब इन सब पर विराम चाहती हूं।
न फिकर हो दुनिया दारी की,
लोग क्या कहेंगे ,ये भूल जाऊं
काश मैं अपने पंख पसार,
आज़ाद ,खुले आसमान में उड़ना चाहती हूं।
क्योंकि मैं जीना चाहती हूं।
अब बस थोड़ा रुकना चाहती हूं।
हर नारी को समर्पित
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