मैं टूटती सी

 मैं टूटती सी ,तार तार जुड़ रही थी,अपने ही खयालो के मोह से बाहर निकल रही थी ,कभी जब सब अच्छा सा लग रहा था मुझे तो मैं टूट कर भी खुद को पूरा समझ रही थी।कभी अधूरा पन लगता तो कभी मैं पूरी हो जाती।कभी सब मेरे हक में होता तो कभी बिल्कुल अकेले खड़ी होती ।हाँ सब मेरे अपने थे आस पास मेरे फिर भी न जाने क्यों वीरनेपन से डर रही थी।मेरा हर डर मेरी अपनी वजह से था शायद ,या मेरे अपने उसकी वजह थे, कभी खुद को तो कभी अपनो को खोने का डर अब मुझे सताने लगा था ,एक तरफ मेरी जिंदगी झूझ रही थी और दूसरी तरफ मेरी आस हर दिन पंख लगाए एक नई उड़ान उड़ रही थी।हाँ कभी कभी दुनिया की सबसे खुश नसीब बनावट थी मैं ,और कभी बदनसीबी मेरी चौखट लांघ रही थी,।मेरी समझ अब दम तोड़ रही थी क्योंकि मैं अब तार तार जुड़ते भी मैं गिरह सी टूट रही थी।मेरी खुशियां मेरे दामन में ही तो थी ,बस कभी मैं उनको समेट लेती और कभी वो रेत की तरह फिसल जाती।कभी मैं जी लेती हर लम्हा हंस कर और कभी अपनी ही मुस्कान की कातिल बन जाती।वो मेरा ,मैं उसकी,तू मेरा ,मैं तेरी,सब मेरे ,मैं सबकी हाँ बस यही सब तो चल रहा था सालों से जिंदगी में,आज एक तूफान से अचानक एक नया पन्ना खुला जिंदगी का मेरी,तो देखा,न वो मेरा,न मैं उसकी,न तू मेरा न मैं तेरी ,न सब मेरे न मैं सबकी। खाली था वो पन्ना,जो भरा सा लगता था ,कोरा था हर किस्सा जो उसमें सजा सा लगता था।

मैं अब बेचैन सी,खुद को ढूंढ लेना चाहती थी।न जाने किस किस के लिए मैंने खुद को खोया,आज मैं सबसे हिसाब चाहती थी ।मेरा हर दिन ,मेरा पल,मेरा चैन ,मेरी नींद ,मेरा सुकून ,सब सावल लिए खड़े थे जुबान पर अपनी ,और मैं निरुत्तर सी खामोश खड़ी थी।किसे क्या कहना था, किसे क्या देना था,मैं तो शायद खुद को ही खो चुकी थी।

मेरी हंसी भी अब पराई सी लगती मुझे,मेरे आंसू भी तो किसी और के ही लिए होते।तो मेरा क्या था? 

मेरा क्या है ?

क्या मैं हूँ खुद की? 

आज इतने सवाल क्यों हैं ,

क्यों एक भी जवाब मेरे पास नही ।क्या तुम बता दोगे मुझे की मैं कौन हूँ? 

शायद वो हूँ जो सुबह एक नई आशा के साथ उठती हूँ,

शायद वो हूँ जो खुद से खुद के लिए कुछ वादे करती हूँ।

शायद वो हूँ जो दिन भर दौड़ ,थक हार कर,खुद से हारती हूँ।

शायद वो हूँ जो हर दिन दुसरो के लिए खुद को सवारती हूँ।

हाँ याद आया मैं तो वो हूँ जो हर रात अपने उन वादों से माफी मांगती हूँ।

हाँ मैं वो हूँ तो हर रोज थोड़ा और टूटती हूँ।

हाँ मैं जिंदगी हूँ।अधूरी सी जिंदगी ।

खाली सी जिंदगी।

अपनी ही साँसों को ढूंढती सी जिंदगी।

रोज घुट कर दम तोड़ती सी जिंदगी।

"प्रीति" की बूंद को तरसती सी जिंदगी।

 जीने की आस में रोज मरती सी जिंदगी।

हाँ मैं अब मैं नही कोई और हूँ।

खुद को ही तलाशती सी जिंदगी।

निशब्द हूँ।

निराकार सी।

जाने कौन हूँ

मैं टूटती सी।


प्रीति



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kuch reh to nahi gya

हाँ,बदल गयी हूँ मैं...

Kuch rah to nahi gaya

बस यही कमाया मैंने