दम तोड़ती मार्कशीट
सिर्फ सजीव चीजे ही दम नही तोड़ती ,कभी कभी वो चीजे भी दम तोड़ती हहैं जिन्हें हम निर्जीव समझते है। जैसे मार्कशीट। क्या वाकई निर्जीव होते है कागज के वो टुकड़े जो हर पिता की आधी कमाई खा कर मिलती हैं । बच्चो की नींदे खाती हैं,बच्चो ही नही उनके मा बाप का खून पसीना पी कर मिलती हैं,फिर निर्जीव कैसे। और जब वही मार्कशीट बक्से में सालों बन्द रहकर दम तोड़ती हैं तो एक सगे सम्बन्धी की मृत्यु पर होने वाली पीड़ा से कम पीड़ा नही देती। और वो हर लड़की इस बात की गवाह है ,जो हर रोज उन कागज के पन्नो को बेजान होता देखती हैं। जिनमे लिखे अंकों को देख कर कभी वो पूरे स्कूल का नाम रोशन कर के आयी थी। उन मार्कशीट को बटोरते तो कब एक दहलीज पार कर दूसरी दहलीज़ लांघ जाती हैं हम लडकिया।इस उम्मीद से की ये पन्ने जिन्हें पाने के लिए पापा की आधी कमाई चली गयी उनको सिंजो कर रखेंगे ,और ये ऐसे ही बढ़ती रहेंगी।अब पिता नही पति की हिस्सेदारी से। समय निकलता जाता है ,घर की जिम्मेदारियां,रस्मो रिवाज और सबका दिल जीतने में साल निकलने लगते हैं।इस उम्मीद में हम रहते है कि किसी दिन फिर आगे की पढ़ाई करने के लिए ये बक्सा खुलेगा ,और जब सब हमारी य...