मैं आज़ाद थी

 मैं बचपन मे उड़ा करती थी

नही, सपनो में नही हकीकत में।

अपने नन्हे हाथ फैलाये ,हवा के साथ 

उन पगडंडियों में तेज दौड़ा करती थी।

मैं बहुत हंसती थी,पूरा दिन खिलखिलाती थी।

मेरे छोटे छोटे पंख थे ,

उम्मीदों के पंख 

जो पापा ने दिए,हौंसलो के पंख जो माँ ने दिए 

अरमानो के पंख जो बड़ी बहनो ने दिए 

और खुशियो के पंख जो छोटे भाई ने दिए।

रंग बिरंगे, चमकदार

जो हर रोज़ बड़े हो रहे थे।

मैं नादान ,बस उड़ रही थी।

उन पंखों के सहारे तेज़ हवा के संग ।

न डर कोई  न खौफ ,न रुकने आसार

वो आज़ादी के पंख।

मैं बचपन से आज़ाद थी।

उड़ने को,आकाश भर घूम आने को

अपने ख्वाबो को बुनने को

अपना घर बसाने को।मैं हर तरह आज़ाद थी।

मैं कोई भी सपना देखने को आज़ाद थी

मैं कोई भी काम करने को आज़ाद थी,

मैं सांस लेने को आज़ाद थी 

मैं जीने को आज़ाद थी।

मैं बहुत खुश रहती थी,

हर पल चहकती थी,महकती थी 

और अपने रंग में रंगी नाचती थी।

मैं कितने सुकून में थी।

हवा का झोंका था बचपन मेरा 

जिसमे न कोई दबाव न कोई बोझ 

बस एक ठहराव

मैं एक ठहराव थी,अपने व्यक्तिव का ,अपने अस्तित्व का 

मैं ,तब मैं थी 

मैं आज़ाद थी 


टिप्पणियाँ

kuch reh to nahi gya

हाँ,बदल गयी हूँ मैं...

Kuch rah to nahi gaya

बस यही कमाया मैंने