कच्ची सहेली
उस दिन हवा में एक सूनापन था जब मेरी पक्की सहेली ने मुझसे दोस्ती तोड़ी थी,उस दिन टूट सी गयी थी उसके इस अचानक के वार से,बिना कुछ कहे बिना शिकायत किये,बिना वजह बताये ,बिना मुझे बताये ये रिश्ता ख़त्म कर दिया था उसने।
जुलाई 2003 की बात थी जब मैं अपने पापा और मामा जी जी की बेटी जो मेरी अच्छी दोस्त थी, के साथ हरिद्वार बुआ जी के घर जाने के लिए बस स्टॉप पर खड़ी थी ,10 वीं में first division से पास होने के बाद रिश्तेदारियों में घूमने का मजा ही कुछ और होता है जब आपके माता पिता आपकी मेहनत का बखान करते है और रिश्तेदार आपकी सराहना करते है ,मैं भी बहुत खुश थी की बस जल्दी से हम हरिद्वार पहुंचे और अपनी 10वीं के फर्स्ट डिवीज़न पर थोडा और तारीफ सुन पाऊँ अपने पापा के मुह से।हम बिजनोर से हरिद्वार जाने वाली रोडवेज बस का इंतज़ार कर रहे थे की तभी हमारे गांव के एक आदमी ने पापा से पूछ लिया " पता नहीं भाई इतनी समझदार लड़की ने इस कदम कैसे उठा लिया।ऐसी उम्मीद नहीं थी आनंद की लड़की से।"पापा और मेरी आँखे प्रश्नसूचक होकर उनपर टिक गयी थी।आनंद की लड़की सुनते ही उनकी तीनो बेटियो का चेहरा मेरे आँखों के सामने था।जिसमे उनकी सबसे छोटी बेटी मेरी बचपन की पक्की सहेली थी। पारुल,उसे इस नाम से सिर्फ मैं ही बुलाती थी बाकि सब उसे गोलों कहकर बुलाते थे।इस से पहले मैं कुछ अनुमान लगाती पापा ने उनसे पुछा,क्यों भाई क्या हुआ?मई भी उत्सुक थी जानने के लिए।
"अरे भाई तुम्हे नहीं पता आनंद की छोटी लड़की ने ज़हर खा लिया।आज सुबह खाया हॉस्पिटल लेके गए है उसे।इतनी समझदार लड़की ने पता नहीं ऐसा कैसे कर दिया।वो अंकल बोले जा रहे थे और जैसे मैं शून्य हो गयी थी,एक दबी सी चीख मेरे दिल में ही दब कर रह गयी थी।।
पारुल ने? पर क्यों? मेरे मुंह से ये सवाल बड़ी मुश्किल से निकला था।
पता नहीं अब सच्चाई क्या है लोग तो कह रहे हैं 10वीं में फेल हो गयी थी तो उसके घर वालो ने कुछ ताना देदिया तो गुस्से में सल्फाज़ खा लिया उसने।उन अंकल ने मुझे देखते हुए कहा था।तभी हमारी बस आगयी थी ,मैं ये भी ना कह पाई की घर वापस चलो मुझे पारुल को देखना है,और चुपचाप बस में बैठ गयी,सफ़र की सारी उत्सुकता वापस घर आने के इंतज़ार में बदल गयी थी। बचपन की सारी यादें मेरे सामने एक टीवी सीरियल की तरह चलने लगी थी।
जब स्कूल में पहला कदम रखा था,कक्षा एक में,गांव के मंदिर में खुला छोटा सा स्कूल जिसमे प्रधानाचार्य पारुल के पापा यानि आनंद ताऊजी थे।उस दिन वो मेरी सहेली बन गयी थी ,मगर धीरे धीरे समय बीता और वो मेरी पक्की सहेली बन गयी।हम दोनों एक ही साथ बैठते,एक ही साथ इंटरवेल में खाना खाने के लिए स्कूल से निकलते।हम दोनों पक्की सहेली के नाम से जाने जाने लगे।वो गणित में मुझसे ज्यादा होशियार थी और मैं अंग्रेजी में उस से ज्यादा।मगर पूरा मिलाकर देखा जाये तो मैं उस से अव्वल थी।मुझे याद आया कक्षा 2 का वो रिजल्ट डे जब मुझे पूरी उम्मीद थी की मैं फर्स्ट और वो सेकंड आएगी,मगर रिजल्ट देख कर मेरे होश उड़ गए,प्रधानाचार्य होने का गलत इस्तेमाल यहां साफ़ नजर आया ,सभी ने कहा था की उसके पापा ने जान बुझ कर मुझे सेकंड और उसे फर्स्ट डिवीज़न दी।थोडा गुस्सा आया मगर हमारी दोस्ती पर कोई असर नहीं पड़ा ।स्कूल में कोई भी कार्यक्रम हो हम दोनों बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते थे।कई जगह महसूस होता की आनंद ताऊजी हम दोनों में बहुत भेदभाव करते हैं मगर हमारी दोस्ती में इसकी कोई जगह नहीं थी।मेरे घर के सामने तालाब और तालाब के उस पार उसका घर था।वो वही से मुझे आवाज देती और मैं उस पतली सी पगडण्डी से भाग कर उसके पास पहुँच जाती जो हम बच्चों ने तालाब के बीच से सूखे जगह से बनाया हुआ था शॉर्टकट रास्ता।कभी कभी मुझे डाँट भी पड़ती की हमेशा मैं ही उस पार क्यों जाती हूँ वो क्यों नहीं आती।मगर इतना तो मैंने कभी सोचा ही नहीं था।
हम अपनी उम्र के पड़ाव पार करने लगे ,कक्षा 5 में थे हम जब अर्चना,अनीता ,राखी हमारी दोस्त बनी।अब मंदिर के पास वाली खाली जमीन पर हमारा स्कूल बन गया था,स्कूल ही नहीं बदला हमारे प्रधानाचार्य और अध्यापक भी बदल गए थे। हम पांच दोस्त थी मगर पारुल ,अर्चना और मुझे एक स्पेशल काम के लिए चुना गया।पास में एक मुस्लिम गाँव था जिसमे शिक्षा का कोई नाम निशान नहीं था ,एक स्कूल था मगर पढ़ाने वाला कोई नहीं था।हम तीनो स्कूल के सबसे होशियार विद्यार्थि
थे इसलिए हमे ये काम सौंपा गया की हम रोज 3 किलोमीटर पैदल चलकर उस गांव जाएँ और वहां के बच्चों को पढ़ाये।आज सोचकर अजीब लगता है मगर उस वक्त हमे हम बड़े लगते थे ।आते जाते रस्ते में खूब मस्ती करते ,पैदल आते,जाते और फिर वापस आकर अपने स्कूल में वहां की खबर देते।धीरे धीरे 5 वीं भी पास हो गयी अब समय आ गया था गांव छोड़ कर पास के कसबे में पढ़ने का।मुझे पता था की पारुल गांव की बाकी लड़कियो की तरह वहां के सरकारी स्कूल कन्या पाठशाला में ही पढ़ेगी,मगर मुझे वहां के ईसाई स्कूल संत पोल्स में भेजा जायेगा।वही हुआ,हम दोनों अलग हो गए।मैंने उसके अंदर एक हीनभावना और अपने लिए एक चिढ महसूस की थी।उस इलाके के सबसे बड़े स्कूल में जो दाखिला लिया था मैंने।वो जहाँ भी मिलती मैं पहले की तरह ही उस से मिलती मगर उसका रवैया मेरे प्रति बदल रहा था।हर बात में मुझे कटाक्ष कर देती। मगर मैं उसे बार बार उसकी कमी का एहसास कराती ये कह कर की मुझे उसकी याद आती है और उस स्कूल में मेरा मन नहीं लगता ,मगर वो मुझे ताना सा देती की अब नए दोस्त बन जायेंगे तब याद नहीं आएगी।समय बीत रहा था ,गांव से निकली सरकारी स्कूल की विद्यार्थी होने के कारन मैं उस ईसाई स्कूल में खुद को अकेला पाती,पढाई का ढंग बदल गया था ,उच्च स्तर के सहपाठी और अध्यापक अध्यापिकाएं ,सब कुछ अलग था ,मुझे मुश्किल हो रही थी उस वातावरण में ढलने में।पढाई का बोझ भी बढ़ने लगा टग और उसी बोझ में शायद दब सी गयी थी पारुल और मेरी दोस्ती।उसे लगा की मैं बदल गयी और मुझे लगा की वो मुझसे अलग होने लगी है।एक ईर्ष्या की भावना मुझे साफ़ नजर आने लगी थी।हमारा रिश्ता कमजोर होने लगा था और बस कुछ फॉरमैलिटी में सिमट कर रह गया था।मैंने पूरी कोशिश की थी उसे यकीन दिलाने की कि मैं और मेरी दोस्ती वही है और उसकी जगह भी।मगर पढाई के बढ़ते बोझ और जिम्मेदारी ने इस रिश्ते को कुछ फीका कर दिया था।समय गुजर गया था और हम 5वीं से 10वीं का सफ़र तय करने लगे थे।सबके मन में एक ही बात थी की गोलों और प्रीति में से ज्यादा नंबर किसके आएंगे।वो किसी भी तरह मुझसे आगे निकल जाना चाहती थी और मुझे कोई एतराज नहीं था हाँ मेरे कंधो पर बोझ था इस बात का कि अगर इलाके के सबसे बड़े स्कूल में होकर भी कम नंबर आये तो लोग क्या कहेंगे।
वो दिन भी आ गया जब मैं खुद का रिजल्ट जानने से ज्यादा अपनी दोस्तों का रिजल्ट जानने में उत्सुक थी और सबसे ज्यादा अपनी पक्की सहेली पारुल का।एक एक करके सबका रिजल्ट देखा ,अनीता 3rd division, अर्चना और राखी 2nd division, अब पारुल की बारी थी मगर उसका रिजल्ट देखने से पहले ही मुझे घर वालो की डांट पड़ी की मई खुद का रिजल्ट क्यों नहीं देख रही हूँ क्या मुझे पास होने की उम्मीद नहीं है।तब मैंने अपना रिजल्ट देखा,उस समय एक अख़बार से पूरा गांव रिजल्ट देखा करता था,सबसे पहले मैंने खुद को 3rd डिवीज़न में ढूंढा मगर मई वहां नहीं थी,फिर कांपती ऊँगली 2nd की लिस्ट में गयी मैं वहां भी नहीं थी अब दिल की धड़कन तेज हो गयी क्योंकि गाव के किसी भी बच्चे का नंबर अभी तक 1st की सूचि में नहीं था मेरी भी हिम्मत नहीं हुई की मैं उस सूचि में नजर लेजाऊं।तभी मैंने डरते हुए वो सूचि देखि ,मैं शायद अलग ही दुनिया में थी क्योंकि गांव की पहली लड़की ,लड़के और लड़कियों में अभी तक की पहली लड़की थी जो प्रथम श्रेणी से पास हुई थी यानि मैंने इतिहास रचा था।ये सच है की इस ख़ुशी के बाद कुछ घंटो के लिए मैं पारुल का रिजल्ट भूल गयी मगर रात को पता लगा की गांव की होशियार लड़कियो में गिनी जाने वाली गोलों फेल हो गयी थी।
मुझे यकीन नहीं हुआ की ये सच हुई मगर सच यही था।मेरी हिम्मत नहीं हुई की मैं उस से जाकर मिलूं या उसे सांत्वना दूं।क्योंकि मैं नहीं चाहती थी की उसे ऐसा लगे की मैं उसका दुःख बांटने नहीं अपनी ख़ुशी पर इतराने आई हूँ।दिन बीते,महीना बीत गया ,मेरे मन में उथल पुथल थी अगर उस से मिली तो वो ये ना समझे की मैं अपनी सफलता पर उसे नीचा दिखाने आई हूँ ,अगर ना गयी तो उसे ऐसा ना लगे की मुझे घमंड हो गया।ये उधेड़ बुन डेढ़ महीना चली मगर अफ़सोस ,आज मुझे ये खबर मिली की उसने तानो से परेशां होकर अपनी जिंदगी खत्म करने का फैसला लिया।मेरी आँखे बरस गयी थी ,बचपन की दोस्ती के सारे पल याद आये ,और अफ़सोस हुआ की काश मैं हिम्मत जुटा पाती उसके पास जाकर उसे ये यकीन दिलाने की कि फेल पास जिंदगी के रंग होते है और आज भी इस चीज़ का हमारी दोस्ती पर फर्क नहीं पड़ेगा।मगर मैं ऐसा नहीं कर पाई थी।हरिद्वार की ये ट्रिप घर वापस आपने की जल्दी में कब निकली पता नहीं चला।मई बस सबसे पहले पारुल के बारे में जानना चाहती थी।इस से पहले मैं घर के अंदर जाकर किसी से कुछ पूछती मेरे पड़ोस के एक बच्चे ने दौड़ कर आकर मुझसे कहा "दीदी आपकी पक्की सहेली गोलों मर गयी कल",,,,,,
मुझे लगा जैसे मैं इस दुनिया में ही नहीं हूँ।मैंने मुड़ कर पीछे उस तालाब के उस पार देखा था जहाँ मुझे वो कड़ी नजर नहीं आई।मेरा दिल रो दिया था ,तु मेरी पक्की सहेली नहीं थी पारुल,अगर होती तो बिना मिले ,बिना कुछ कहे ,बिना शिकायत किये इस तरह दोस्ती तोड़ कर न जाती,तू पक्की नहीं कच्ची सहेली थी" मैंने रोते मन में बड़बड़ाया था।
प्रीति राजपूत शर्मा
14 नवंबर 2016
जुलाई 2003 की बात थी जब मैं अपने पापा और मामा जी जी की बेटी जो मेरी अच्छी दोस्त थी, के साथ हरिद्वार बुआ जी के घर जाने के लिए बस स्टॉप पर खड़ी थी ,10 वीं में first division से पास होने के बाद रिश्तेदारियों में घूमने का मजा ही कुछ और होता है जब आपके माता पिता आपकी मेहनत का बखान करते है और रिश्तेदार आपकी सराहना करते है ,मैं भी बहुत खुश थी की बस जल्दी से हम हरिद्वार पहुंचे और अपनी 10वीं के फर्स्ट डिवीज़न पर थोडा और तारीफ सुन पाऊँ अपने पापा के मुह से।हम बिजनोर से हरिद्वार जाने वाली रोडवेज बस का इंतज़ार कर रहे थे की तभी हमारे गांव के एक आदमी ने पापा से पूछ लिया " पता नहीं भाई इतनी समझदार लड़की ने इस कदम कैसे उठा लिया।ऐसी उम्मीद नहीं थी आनंद की लड़की से।"पापा और मेरी आँखे प्रश्नसूचक होकर उनपर टिक गयी थी।आनंद की लड़की सुनते ही उनकी तीनो बेटियो का चेहरा मेरे आँखों के सामने था।जिसमे उनकी सबसे छोटी बेटी मेरी बचपन की पक्की सहेली थी। पारुल,उसे इस नाम से सिर्फ मैं ही बुलाती थी बाकि सब उसे गोलों कहकर बुलाते थे।इस से पहले मैं कुछ अनुमान लगाती पापा ने उनसे पुछा,क्यों भाई क्या हुआ?मई भी उत्सुक थी जानने के लिए।
"अरे भाई तुम्हे नहीं पता आनंद की छोटी लड़की ने ज़हर खा लिया।आज सुबह खाया हॉस्पिटल लेके गए है उसे।इतनी समझदार लड़की ने पता नहीं ऐसा कैसे कर दिया।वो अंकल बोले जा रहे थे और जैसे मैं शून्य हो गयी थी,एक दबी सी चीख मेरे दिल में ही दब कर रह गयी थी।।
पारुल ने? पर क्यों? मेरे मुंह से ये सवाल बड़ी मुश्किल से निकला था।
पता नहीं अब सच्चाई क्या है लोग तो कह रहे हैं 10वीं में फेल हो गयी थी तो उसके घर वालो ने कुछ ताना देदिया तो गुस्से में सल्फाज़ खा लिया उसने।उन अंकल ने मुझे देखते हुए कहा था।तभी हमारी बस आगयी थी ,मैं ये भी ना कह पाई की घर वापस चलो मुझे पारुल को देखना है,और चुपचाप बस में बैठ गयी,सफ़र की सारी उत्सुकता वापस घर आने के इंतज़ार में बदल गयी थी। बचपन की सारी यादें मेरे सामने एक टीवी सीरियल की तरह चलने लगी थी।
जब स्कूल में पहला कदम रखा था,कक्षा एक में,गांव के मंदिर में खुला छोटा सा स्कूल जिसमे प्रधानाचार्य पारुल के पापा यानि आनंद ताऊजी थे।उस दिन वो मेरी सहेली बन गयी थी ,मगर धीरे धीरे समय बीता और वो मेरी पक्की सहेली बन गयी।हम दोनों एक ही साथ बैठते,एक ही साथ इंटरवेल में खाना खाने के लिए स्कूल से निकलते।हम दोनों पक्की सहेली के नाम से जाने जाने लगे।वो गणित में मुझसे ज्यादा होशियार थी और मैं अंग्रेजी में उस से ज्यादा।मगर पूरा मिलाकर देखा जाये तो मैं उस से अव्वल थी।मुझे याद आया कक्षा 2 का वो रिजल्ट डे जब मुझे पूरी उम्मीद थी की मैं फर्स्ट और वो सेकंड आएगी,मगर रिजल्ट देख कर मेरे होश उड़ गए,प्रधानाचार्य होने का गलत इस्तेमाल यहां साफ़ नजर आया ,सभी ने कहा था की उसके पापा ने जान बुझ कर मुझे सेकंड और उसे फर्स्ट डिवीज़न दी।थोडा गुस्सा आया मगर हमारी दोस्ती पर कोई असर नहीं पड़ा ।स्कूल में कोई भी कार्यक्रम हो हम दोनों बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते थे।कई जगह महसूस होता की आनंद ताऊजी हम दोनों में बहुत भेदभाव करते हैं मगर हमारी दोस्ती में इसकी कोई जगह नहीं थी।मेरे घर के सामने तालाब और तालाब के उस पार उसका घर था।वो वही से मुझे आवाज देती और मैं उस पतली सी पगडण्डी से भाग कर उसके पास पहुँच जाती जो हम बच्चों ने तालाब के बीच से सूखे जगह से बनाया हुआ था शॉर्टकट रास्ता।कभी कभी मुझे डाँट भी पड़ती की हमेशा मैं ही उस पार क्यों जाती हूँ वो क्यों नहीं आती।मगर इतना तो मैंने कभी सोचा ही नहीं था।
हम अपनी उम्र के पड़ाव पार करने लगे ,कक्षा 5 में थे हम जब अर्चना,अनीता ,राखी हमारी दोस्त बनी।अब मंदिर के पास वाली खाली जमीन पर हमारा स्कूल बन गया था,स्कूल ही नहीं बदला हमारे प्रधानाचार्य और अध्यापक भी बदल गए थे। हम पांच दोस्त थी मगर पारुल ,अर्चना और मुझे एक स्पेशल काम के लिए चुना गया।पास में एक मुस्लिम गाँव था जिसमे शिक्षा का कोई नाम निशान नहीं था ,एक स्कूल था मगर पढ़ाने वाला कोई नहीं था।हम तीनो स्कूल के सबसे होशियार विद्यार्थि
थे इसलिए हमे ये काम सौंपा गया की हम रोज 3 किलोमीटर पैदल चलकर उस गांव जाएँ और वहां के बच्चों को पढ़ाये।आज सोचकर अजीब लगता है मगर उस वक्त हमे हम बड़े लगते थे ।आते जाते रस्ते में खूब मस्ती करते ,पैदल आते,जाते और फिर वापस आकर अपने स्कूल में वहां की खबर देते।धीरे धीरे 5 वीं भी पास हो गयी अब समय आ गया था गांव छोड़ कर पास के कसबे में पढ़ने का।मुझे पता था की पारुल गांव की बाकी लड़कियो की तरह वहां के सरकारी स्कूल कन्या पाठशाला में ही पढ़ेगी,मगर मुझे वहां के ईसाई स्कूल संत पोल्स में भेजा जायेगा।वही हुआ,हम दोनों अलग हो गए।मैंने उसके अंदर एक हीनभावना और अपने लिए एक चिढ महसूस की थी।उस इलाके के सबसे बड़े स्कूल में जो दाखिला लिया था मैंने।वो जहाँ भी मिलती मैं पहले की तरह ही उस से मिलती मगर उसका रवैया मेरे प्रति बदल रहा था।हर बात में मुझे कटाक्ष कर देती। मगर मैं उसे बार बार उसकी कमी का एहसास कराती ये कह कर की मुझे उसकी याद आती है और उस स्कूल में मेरा मन नहीं लगता ,मगर वो मुझे ताना सा देती की अब नए दोस्त बन जायेंगे तब याद नहीं आएगी।समय बीत रहा था ,गांव से निकली सरकारी स्कूल की विद्यार्थी होने के कारन मैं उस ईसाई स्कूल में खुद को अकेला पाती,पढाई का ढंग बदल गया था ,उच्च स्तर के सहपाठी और अध्यापक अध्यापिकाएं ,सब कुछ अलग था ,मुझे मुश्किल हो रही थी उस वातावरण में ढलने में।पढाई का बोझ भी बढ़ने लगा टग और उसी बोझ में शायद दब सी गयी थी पारुल और मेरी दोस्ती।उसे लगा की मैं बदल गयी और मुझे लगा की वो मुझसे अलग होने लगी है।एक ईर्ष्या की भावना मुझे साफ़ नजर आने लगी थी।हमारा रिश्ता कमजोर होने लगा था और बस कुछ फॉरमैलिटी में सिमट कर रह गया था।मैंने पूरी कोशिश की थी उसे यकीन दिलाने की कि मैं और मेरी दोस्ती वही है और उसकी जगह भी।मगर पढाई के बढ़ते बोझ और जिम्मेदारी ने इस रिश्ते को कुछ फीका कर दिया था।समय गुजर गया था और हम 5वीं से 10वीं का सफ़र तय करने लगे थे।सबके मन में एक ही बात थी की गोलों और प्रीति में से ज्यादा नंबर किसके आएंगे।वो किसी भी तरह मुझसे आगे निकल जाना चाहती थी और मुझे कोई एतराज नहीं था हाँ मेरे कंधो पर बोझ था इस बात का कि अगर इलाके के सबसे बड़े स्कूल में होकर भी कम नंबर आये तो लोग क्या कहेंगे।
वो दिन भी आ गया जब मैं खुद का रिजल्ट जानने से ज्यादा अपनी दोस्तों का रिजल्ट जानने में उत्सुक थी और सबसे ज्यादा अपनी पक्की सहेली पारुल का।एक एक करके सबका रिजल्ट देखा ,अनीता 3rd division, अर्चना और राखी 2nd division, अब पारुल की बारी थी मगर उसका रिजल्ट देखने से पहले ही मुझे घर वालो की डांट पड़ी की मई खुद का रिजल्ट क्यों नहीं देख रही हूँ क्या मुझे पास होने की उम्मीद नहीं है।तब मैंने अपना रिजल्ट देखा,उस समय एक अख़बार से पूरा गांव रिजल्ट देखा करता था,सबसे पहले मैंने खुद को 3rd डिवीज़न में ढूंढा मगर मई वहां नहीं थी,फिर कांपती ऊँगली 2nd की लिस्ट में गयी मैं वहां भी नहीं थी अब दिल की धड़कन तेज हो गयी क्योंकि गाव के किसी भी बच्चे का नंबर अभी तक 1st की सूचि में नहीं था मेरी भी हिम्मत नहीं हुई की मैं उस सूचि में नजर लेजाऊं।तभी मैंने डरते हुए वो सूचि देखि ,मैं शायद अलग ही दुनिया में थी क्योंकि गांव की पहली लड़की ,लड़के और लड़कियों में अभी तक की पहली लड़की थी जो प्रथम श्रेणी से पास हुई थी यानि मैंने इतिहास रचा था।ये सच है की इस ख़ुशी के बाद कुछ घंटो के लिए मैं पारुल का रिजल्ट भूल गयी मगर रात को पता लगा की गांव की होशियार लड़कियो में गिनी जाने वाली गोलों फेल हो गयी थी।
मुझे यकीन नहीं हुआ की ये सच हुई मगर सच यही था।मेरी हिम्मत नहीं हुई की मैं उस से जाकर मिलूं या उसे सांत्वना दूं।क्योंकि मैं नहीं चाहती थी की उसे ऐसा लगे की मैं उसका दुःख बांटने नहीं अपनी ख़ुशी पर इतराने आई हूँ।दिन बीते,महीना बीत गया ,मेरे मन में उथल पुथल थी अगर उस से मिली तो वो ये ना समझे की मैं अपनी सफलता पर उसे नीचा दिखाने आई हूँ ,अगर ना गयी तो उसे ऐसा ना लगे की मुझे घमंड हो गया।ये उधेड़ बुन डेढ़ महीना चली मगर अफ़सोस ,आज मुझे ये खबर मिली की उसने तानो से परेशां होकर अपनी जिंदगी खत्म करने का फैसला लिया।मेरी आँखे बरस गयी थी ,बचपन की दोस्ती के सारे पल याद आये ,और अफ़सोस हुआ की काश मैं हिम्मत जुटा पाती उसके पास जाकर उसे ये यकीन दिलाने की कि फेल पास जिंदगी के रंग होते है और आज भी इस चीज़ का हमारी दोस्ती पर फर्क नहीं पड़ेगा।मगर मैं ऐसा नहीं कर पाई थी।हरिद्वार की ये ट्रिप घर वापस आपने की जल्दी में कब निकली पता नहीं चला।मई बस सबसे पहले पारुल के बारे में जानना चाहती थी।इस से पहले मैं घर के अंदर जाकर किसी से कुछ पूछती मेरे पड़ोस के एक बच्चे ने दौड़ कर आकर मुझसे कहा "दीदी आपकी पक्की सहेली गोलों मर गयी कल",,,,,,
मुझे लगा जैसे मैं इस दुनिया में ही नहीं हूँ।मैंने मुड़ कर पीछे उस तालाब के उस पार देखा था जहाँ मुझे वो कड़ी नजर नहीं आई।मेरा दिल रो दिया था ,तु मेरी पक्की सहेली नहीं थी पारुल,अगर होती तो बिना मिले ,बिना कुछ कहे ,बिना शिकायत किये इस तरह दोस्ती तोड़ कर न जाती,तू पक्की नहीं कच्ची सहेली थी" मैंने रोते मन में बड़बड़ाया था।
प्रीति राजपूत शर्मा
14 नवंबर 2016
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