रोडवेज
रोडवेज से हमारा बचपन का रिश्ता था।जब से होश संभाला तब रोडवेज की बस से ही सफ़र किया।कभी कभी ऐसे रॉब दिखाते थे मानो ये हमारी ही पर्सनल प्रोपर्टी है।क्योंकि पापा रोडवेज में ऑफिसर जो थे।एक अजीब सा रिश्ता बन गया था हमारा उसके साथ,यहां तक की जब मैं देहरादून में शिफ्ट हुई नए शहर में सब नया सा लगा मगर जब जब रोडवेज बसों को देखा,लगा जैसे कोई अपना मिल गया।मुझे याद है जब मेरा कॉलेज रोज आना जाना होता ,पापा पहले ही पास बना कर देदेते जिस से मैं बिना किराया दिए कॉलेज जाती ,ऊपर से एक रॉब अलग होता जब मैं बोलती की मेरे पापा रोडवेज अधिकारी हैं।मुझे याद है ऐसे कुछ वाक्यात जब मैंने टिकिट बिना यात्रा की,कुछ नए कन्डक्टर ने मुझसे सवाल पूछे,मेरा बी ऐ के एग्जाम थे,मेरी फ्रेंड स्वाति और मैं साथ कॉलेज जाते ,उसके पापा भी रोडवेज में कार्यरत थे।उस कन्डक्टर को मैंने कई बार कहा की मैं अपने पापा की आईकार्ड पर ट्रैवेल कर रही हूँ मगर उसने तेज बोलते हुए कहा,ये नहीं चलेगा यहां ,उसने ड्राईवर को बस रोक देने को कहा औरसबके सामने आधे रस्ते उतर जाने को कहा,अब मेरा पारा बढ़ चूका था।क्योंकि वो बात पैसो की,या टिकिट की नहीं थी अब बात थी अधिकारो की और अपने आत्मसम्मान की।मैंने उसे बस इतना बोला था चलो रोडवेज वर्कशॉप मैंने भी आपको सबक न दिया तो कहना।पुराने कन्डक्टर सब हमे जानते थे मगर उसे मैंने पहली बार देखा था।खेर मैंनेअपना टिकिट बनवा लिया और उसे चेतावनी दी की मैं आज शिकायत जरूर करूंगी।जब ये सब बात ड्राईवर ने सुनी उसने मुझे कहा की दिखाओ तो जरा वो आईकार्ड।उसको देखते ही ड्राईवर ने कन्डक्टर को आवाज दी और बड़े विनम्रता से कहा।भाई इनके टिकट वापस कर दे वरना तेरी नौकरी खतरे में आजायेगी।बाबू जी की बेटी है ये,जो परिवहन परिषद् के अधिकारी है,पूरा मुरादाबाद मंडल इनके अंडर जुड़ा है।अब कुछ भाव उस कन्डक्टर के चेहरे पर उभर आये थे।मगर अब मुझे कोई जरुरत नहीं थी।मैंने भी अकड़ में कहा था रहने दीजिये, मैं टिकट से ही जाउंगी मगर पापा को जरूर बोलूंगी।अब बस अड्डा आ गया था,बस रुकी ही थी की सामने स्वाति के पापा करण अंकल खड़े थे।हम बहुत गुस्से में थे पेपेर स्टार्ट होने को था college अभी काफी दूर था ऊपर से उसने मूड ख़राब कर दिया था ,खैर उसने हमसे माफ़ी मांगी ।और हम कॉलेज चले गए।एक गर्व सा होता था बताने में की मैं ऑफिसर रामेन्द्र राजपूत की बेटी हूँ।मगर अचानक हमारा रिश्ता रोडवेज से खत्म हुआ।जब पापा हम सब को छोड़ कर चले गए ।बस दिखती तो खुद ही मुह घूम जाता।अब मैं नहीं बोल सकती थी की मेरे पापा ने अपने जीवन का इतना कीमती समय इस रोडवेज को दिया था।ऐसा लगता जैसे एक बहुत पुराना रिश्ता खत्म हो गया।ऐसा ही तब हुआ जब मम्मी मुझे मिलने देहरादून आई और जब हम बिजनोर के लिए बस में बैठे तो मैंने अपने टिकट के पैसे दिए और मम्मी के आईकार्ड को उनके सामने कर दिया।मगर उस कन्डक्टर ने मुझसे सवाल किया की ये किसका कार्ड है मैंने उनको बोला की ये मेरी माँ है और कार्ड पापा का है।पापा अब इस दुनिया में नहीं है मगर मम्मी इस कार्ड को अपने लिए ताउम्र use कर सकती है।उसने तपाक से बोला मैडम ऐसे नहीं होता वो साथ होंगे तभी ये वैलिड होगा आप टिकट बनवाइए,अब मुझे गुस्सा आचुका था मैं खड़ी हो गयी थी आज फिर बात पैसो की नहीं अधिकारो की थी।वो साथ होते का क्या मतलब बनता है,बोला न अब वो नहीं हैं,समझ नहीं आया आपको।मैं लगभग चिल्ला उठी थी,क्योंकि मैं चाहती थी की ये टिकिट और कार्ड वाली बात शांति से निपट जाती ,मैं कुछ ऐसा नहीं बोलना चाहती थी की मम्मी को एक बार फिर एहसास हो की उन्होंने क्या खोया है।मगर उस बेवकूफ कण्डक्टर की वजह से मुझे खुल के सामने आना पड़ा।मम्मी ने धीरे से मुझे कहा कोई बात नहीं तू मेरा टिकिट बनवा दे",एक टीस सी उठ गयी थी मेरे दिल में,मगर अब बात मेरे माँ के अधिकारो की थी,मैंने भी गुस्से में बोला था ,किस बात का टिकिट,ये आपके लिए भीख नहीं मांग रही मैं, ये आपका अधिकार है जो कोई नहीं ले सकता आपसे,पूरी जिंदगी दी है आपके पति ने इस रोडवेज को ।मेरा गला भर आया था।मुझे नहीं पता की उस कन्डक्टर ने मेरे शब्दों पर ध्यान नहीं दिया था या शोर की वजह से वो सुन नहीं पाया था की मैंने क्या माँगा उस से भीख या अधिकार।वो अपनी बात पे अड़ा था और मैं हैरान थी उसकी इस अकड़ से।बस बीच हाईवे पर रोक दी गयी थी ,कुछ यात्री जिन्हें पता ही नहीं था की मसला क्या है वो मुझे इस तरह घूर रहे थे जैसे मैं एक बद्तमीज़ लड़की हूँ जो अपने से बड़े आदमी के साथ लड़ रही हूँ,जो मेरी बात समझ चुके थे उनके चेहरे पर मेरे लिए मुझे सहानुभूति नजर आई जिसकी मुझे कोई आवश्यकता नहीं थी।गुस्से में उस कन्डक्टर ने ऐसी बात बोल दी जिसने मुझे मजबूर कर दिया अपना आपा खोने पर।,"मैडम इस तरह तो हर कोई कार्ड लेकर आजायेगा,जब तक वो साथ नहीं होंगे कार्ड मान्य नहीं होगा।बस इस से आगे मैं कुछ सुन ही नहीं सकती थी मैंने भी उसी के शब्दों में उसे जवाब दिया था।
"क्यों भाई तेरी बीवी भी तेरे कार्ड पर ट्रैवेल करते हुए यही कहती है क्या की मेरा पति मर गया।और कहाँ से लाऊँ मैं उन्हें वापस, गंगा जी से?क्या इतनी सी बात तुम्हे समझ नहीं आ रही की वो अब इस दुनिया में ही नहीं हैंऔर तुम हो की बहस किये जा रहे हो,अब तो मैं ये हक़ लेके रहूंगी चाहे जो हो जाये।मेरे पापा ने अपनी पूरी जिंदगी दी है इस रोडवेज को और आज उनकी पत्नी अपने हक़ के लिए इस तरह लड़ेगी,शर्म नहीं आती आप लोगो को क्या।चलिए आप बस अड्डे तक ,अब मैं आपको बताउंगी की आपने क्या किया है।और मैंने अपने एक भाई का नंबर डायल किया जो खुद रोडवेज में कार्यरत हैं।मेरा गला भर आया था मैंने उनको बोला की किस तरह यहां पर इस कण्डक्टर ने बात को बढ़ाया है।भैया ने उसे फ़ोन पर जब बताया तो वो मेरा मुह ऐसे देख रहा था जैसे सच में उसने पाप कर दिया है।
सॉरी मैडम ,मुझे नहीं पता था कि बाबूजी अब इस दुनिया में नहीं है,माफ़ी चाहता हूँ मैं सुन नहीं पाया,पहले से मूड ख़राब था मेरा,इतने अजीब अजीब लोग मिलते ह पूरा दिन दिमाग ख़राब हो जाता है।मैं माफ़ी चाहता हूँ।
मैं कुछ नहीं बोल पाई थी मगर इस सिस्टम को लेकर मेरे दिल में नाराजगी थी कि क्या हर मोड़ पर मेरी माँ को अपने अधिकारोके लिए लड़ना होगा हर जगह बताना होगा की जिसका पहचान पत्र वो लेकर बैठी है उनकी पहचान हर बार उनको करनी होगी ।नहीं ये मुझे मंजूर नहीं था मैंने मम्मी को समझाते हुए कहा था,वैसे तो ये आपका हक़ है मम्मी मगर अगर ये हक़ आपको बार बार रुलाये तो मत लो इस हक़ को।पापा ने बहुत कुछ कमाया है आपके लिए ,अगर इस छोटी सी टिकिट की रकम जे लिए हर बार आपको अपने जख्मो को कुरेदना पड़े तो नहीं चाहिए ऐसा हक़।आज के बाद कोई जरुरत नहीं है इस पहचान पत्र पर यात्रा करने की।यहाँ हर कोई जख्मो पर नमक डालेगा।और मेरी आँखे भर आई थी।मम्मी की आँखे भी छलक आई थी।
खैर अब रोडवेज से रिश्ता टूट सा गया था ।रोडवेज की बस को देखकर जो अपना पन सा लगता था वो खो सा गया था
मगर आज साढ़े तीन साल बाद जब मुझे पता लगा की कल मेरा भाई पापा की छोड़ी हुई जिम्मेदारी पूरी करने वाला है तो अजीब सा सुकून मिला।3 साल हो गए थे ये इंतज़ार करते करते की कब उसका जोइनिंग लैटर आएगा।कब आदेश होगा की रामेन्द्र राजपूत का कार्य भार अब उनका बेटा नवीन निश्चल संभालेगा।कितनी बेसब्री से हम सब इस खबर का इंतज़ार कर रहे थे,मगर जैसे ही मुझे पता लगा की कल से भाई रोडवेज ज्वाइन कर रहा है ,मेरा दिल भर आया और आँखे बरस उठी,बचपन से लेकर अब तक का पापा के ऑफिस आने जाने का सफ़र आँखों के सामने तैर गया।कैसे वो हर गर्मी,हर सर्दी,लू हो या बारिश अपना टिफिन और उपन्यास से भरा काला बैग कंधे पर टांग कर भर दोपहर में 2 बजे घर से ऑफिस के लिए निकला करते थे।और सुबह ठीक 7 बजे अपना वही बैग बाहर आँगन में पड़ी चारपाई पर रख कर उसे खाली किया करते थे खाली टिफिन अपनी जगह और अखबार अपनी जगह फिर एक जोर की आवाज हमे दिया करते थे,ये समझ लो की वो हमारा अलार्म थे।
सारी यादें मेरी आँखों से बह रही थी।मुझे पता था की हम सब का ही नहीं मम्मी का भी यही हाल होगा ,मैंने उन्हें फ़ोन लगाया और मेरा अंदाज़ा सही था वो बिलख कर रो पड़ी थी जब मैंने उन्हें वधाई दी।रो तो मैं भी रही थी मगर बचपन से स्ट्रांग बेटी होने का जो टाइटल मुझे मिला हुआ था वो मुझे इज़ाज़त नहीं दे रहा था की मैं भी रो कर अपना दिल हल्का कर पाऊँ।बस मैंने उन्हें समझाते हुए कहा था की जो सच है वो हम सब जानते हैं,वो दुःख हम सबको हैकि अगर आज वो होते तो इस तरह से भाई को उनकी सर्विस पूरी न करनी पड़ती मगर ये भी सच है की जाते जाते वो उसका जीवन बना कर चले गए।घर,पैसा यहां तक की अपनी नौकरी तक।ये तो ख़ुशी की बात है की जो जिम्मेदारी वो बीच में छोड़ कर गए उसे आज उन्ही का बेटा आगे तक पूरी करेगा।जो रिश्ता रोडवेज से ख़त्म होगया था वो आज फिर से जुड़ गया है पूरी जिंदगी के लिए।आपके अधिकार फिर से चल कर आये है आपके पास।
मैं बस बोलती जा रही थी मगर मेरा एक एक शव्द मुझे कमजोर कर रहा था।मगर मुझे भी ख़ुशी थी की अब कभी माँ को अपने अधिकारो के लिए लड़ना नहीं होगा।अब कभी कोई नहीं कहेगा की इस तरह तो हर कोई कार्ड लेकर यात्रा करेगा।अब कोई उनका दिल नहीं दुखायेगा।अब रोडवेज की बस को देख कर हमारा मुह नहीं घूम जायेगा।अब फिर से रोडवेज से हमारा रिश्ता बन जायेगा।एक वो होली थी जो हमारे जीवन के रंग लेकर चली गयी थी ,आज वो दीवाली है खुशियो के दिए जलाने आई है,और मैं इस उपलब्धि से खुश हूँ। i love u papa.
प्रीति राजपूत शर्मा
30 अक्टूबर 2016
"क्यों भाई तेरी बीवी भी तेरे कार्ड पर ट्रैवेल करते हुए यही कहती है क्या की मेरा पति मर गया।और कहाँ से लाऊँ मैं उन्हें वापस, गंगा जी से?क्या इतनी सी बात तुम्हे समझ नहीं आ रही की वो अब इस दुनिया में ही नहीं हैंऔर तुम हो की बहस किये जा रहे हो,अब तो मैं ये हक़ लेके रहूंगी चाहे जो हो जाये।मेरे पापा ने अपनी पूरी जिंदगी दी है इस रोडवेज को और आज उनकी पत्नी अपने हक़ के लिए इस तरह लड़ेगी,शर्म नहीं आती आप लोगो को क्या।चलिए आप बस अड्डे तक ,अब मैं आपको बताउंगी की आपने क्या किया है।और मैंने अपने एक भाई का नंबर डायल किया जो खुद रोडवेज में कार्यरत हैं।मेरा गला भर आया था मैंने उनको बोला की किस तरह यहां पर इस कण्डक्टर ने बात को बढ़ाया है।भैया ने उसे फ़ोन पर जब बताया तो वो मेरा मुह ऐसे देख रहा था जैसे सच में उसने पाप कर दिया है।
सॉरी मैडम ,मुझे नहीं पता था कि बाबूजी अब इस दुनिया में नहीं है,माफ़ी चाहता हूँ मैं सुन नहीं पाया,पहले से मूड ख़राब था मेरा,इतने अजीब अजीब लोग मिलते ह पूरा दिन दिमाग ख़राब हो जाता है।मैं माफ़ी चाहता हूँ।
मैं कुछ नहीं बोल पाई थी मगर इस सिस्टम को लेकर मेरे दिल में नाराजगी थी कि क्या हर मोड़ पर मेरी माँ को अपने अधिकारोके लिए लड़ना होगा हर जगह बताना होगा की जिसका पहचान पत्र वो लेकर बैठी है उनकी पहचान हर बार उनको करनी होगी ।नहीं ये मुझे मंजूर नहीं था मैंने मम्मी को समझाते हुए कहा था,वैसे तो ये आपका हक़ है मम्मी मगर अगर ये हक़ आपको बार बार रुलाये तो मत लो इस हक़ को।पापा ने बहुत कुछ कमाया है आपके लिए ,अगर इस छोटी सी टिकिट की रकम जे लिए हर बार आपको अपने जख्मो को कुरेदना पड़े तो नहीं चाहिए ऐसा हक़।आज के बाद कोई जरुरत नहीं है इस पहचान पत्र पर यात्रा करने की।यहाँ हर कोई जख्मो पर नमक डालेगा।और मेरी आँखे भर आई थी।मम्मी की आँखे भी छलक आई थी।
खैर अब रोडवेज से रिश्ता टूट सा गया था ।रोडवेज की बस को देखकर जो अपना पन सा लगता था वो खो सा गया था
मगर आज साढ़े तीन साल बाद जब मुझे पता लगा की कल मेरा भाई पापा की छोड़ी हुई जिम्मेदारी पूरी करने वाला है तो अजीब सा सुकून मिला।3 साल हो गए थे ये इंतज़ार करते करते की कब उसका जोइनिंग लैटर आएगा।कब आदेश होगा की रामेन्द्र राजपूत का कार्य भार अब उनका बेटा नवीन निश्चल संभालेगा।कितनी बेसब्री से हम सब इस खबर का इंतज़ार कर रहे थे,मगर जैसे ही मुझे पता लगा की कल से भाई रोडवेज ज्वाइन कर रहा है ,मेरा दिल भर आया और आँखे बरस उठी,बचपन से लेकर अब तक का पापा के ऑफिस आने जाने का सफ़र आँखों के सामने तैर गया।कैसे वो हर गर्मी,हर सर्दी,लू हो या बारिश अपना टिफिन और उपन्यास से भरा काला बैग कंधे पर टांग कर भर दोपहर में 2 बजे घर से ऑफिस के लिए निकला करते थे।और सुबह ठीक 7 बजे अपना वही बैग बाहर आँगन में पड़ी चारपाई पर रख कर उसे खाली किया करते थे खाली टिफिन अपनी जगह और अखबार अपनी जगह फिर एक जोर की आवाज हमे दिया करते थे,ये समझ लो की वो हमारा अलार्म थे।
सारी यादें मेरी आँखों से बह रही थी।मुझे पता था की हम सब का ही नहीं मम्मी का भी यही हाल होगा ,मैंने उन्हें फ़ोन लगाया और मेरा अंदाज़ा सही था वो बिलख कर रो पड़ी थी जब मैंने उन्हें वधाई दी।रो तो मैं भी रही थी मगर बचपन से स्ट्रांग बेटी होने का जो टाइटल मुझे मिला हुआ था वो मुझे इज़ाज़त नहीं दे रहा था की मैं भी रो कर अपना दिल हल्का कर पाऊँ।बस मैंने उन्हें समझाते हुए कहा था की जो सच है वो हम सब जानते हैं,वो दुःख हम सबको हैकि अगर आज वो होते तो इस तरह से भाई को उनकी सर्विस पूरी न करनी पड़ती मगर ये भी सच है की जाते जाते वो उसका जीवन बना कर चले गए।घर,पैसा यहां तक की अपनी नौकरी तक।ये तो ख़ुशी की बात है की जो जिम्मेदारी वो बीच में छोड़ कर गए उसे आज उन्ही का बेटा आगे तक पूरी करेगा।जो रिश्ता रोडवेज से ख़त्म होगया था वो आज फिर से जुड़ गया है पूरी जिंदगी के लिए।आपके अधिकार फिर से चल कर आये है आपके पास।
मैं बस बोलती जा रही थी मगर मेरा एक एक शव्द मुझे कमजोर कर रहा था।मगर मुझे भी ख़ुशी थी की अब कभी माँ को अपने अधिकारो के लिए लड़ना नहीं होगा।अब कभी कोई नहीं कहेगा की इस तरह तो हर कोई कार्ड लेकर यात्रा करेगा।अब कोई उनका दिल नहीं दुखायेगा।अब रोडवेज की बस को देख कर हमारा मुह नहीं घूम जायेगा।अब फिर से रोडवेज से हमारा रिश्ता बन जायेगा।एक वो होली थी जो हमारे जीवन के रंग लेकर चली गयी थी ,आज वो दीवाली है खुशियो के दिए जलाने आई है,और मैं इस उपलब्धि से खुश हूँ। i love u papa.
प्रीति राजपूत शर्मा
30 अक्टूबर 2016
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