पुराने दिन अच्छे थे

आज पुराना समय याद आया जब मैंने फिर से उन पलों को समेटने की कोशिश की।तीज और रक्षाबंधन का त्योहार मनाने मायके आना हुआ। सावन का महीना ,बहुत सी यादें लेकर आ खड़ा हुआ।मैं भी इस उम्मीद से मायके आयी कि शायद फिर से हम सब बहने ,और सहेली तीज के त्योहार पर मायके में मिल जाएं और अपना बचपन याद कर के फिर से ठहाके लगा ले।लेकिन आज के व्यस्त समय में कहां सबका आना होता है ऊपर से ये कोरोना जिसने सबके सपनो को इस साल जंजीर में जकड़ दिया है।मैं भी 6 महीने बाद जैसे कैसे आ ही पहुची ।शादी के बाद ये दूसरी तीज मायके में मनाने।बचपन को जीना चाहती थी इसलिए संकल्प लिया कि जैसे बचपन मे पूरे सावन हर रोज शाम को गाँव के मंदिर में दिया जलाने जाते थे वैसे ही इस बार भी जाऊंगी।इसलिए रोज शाम को मंदिर जाती हूँ उस पुराने समय की तलाश में लेकिन साथ कि वो सहेलियों की जगह माँ और बच्चो ने लेली।वो भी दिन थे जब 6 7 हमउम्र लड़कियां हर रोज सबको आवाज देकर इकट्ठा होकर पूरे सावन मंदिर पर दिया जलाने जाती थी ।ये माँ और बच्चो के साथ जाने का अनुभव भी सुखद है मगर वो सुकून अभी भी नही मिला।आज मंदिर से जुड़े अपने स्कूल को भी करीब से देखा।मंदिर के प्रांगण में खड़े वो यूकेलिप्टस के पेड़ों की जगह उन पक्की ििईंटो ने ले ली है जिनके नीचे टाट के कट्टे डाल कर हम कक्षा 1 में तख्ती लिखा करते थे।सबके पास अपनी कलम और अपनी दवात होती।कितने कम समय मे कौन सबसे ज्यादा बार तख्ती लिख कर सूखा कर ,फिर से मुल्तानी मिट्टी से लीप कर फिर से बैटरी के सेल को फोड़ कर उसमें से निकले काले रिफिल से तख्ती पर अक्षर लिखकर ,फिर से वो काली नीली लाल इंक की टिक्की को पानी मे घोल कर सरकंडे से बनी कलम से लिख कर सबकी नजरों में हीरो बन जायेगा ये होड़ होती थी।हाँ यही थे हमारे खेल यही थी हमारी प्रतियोगिता।।
मास्टर जी के जाते ही उन यूकेलिप्टस के सीधे सटाक पेड़ो पर चढ़ कर कौन सबसे ऊपर जाए ये थी हमारी प्रतिस्पर्धा।
आज वो बरामदा फिर से देखा जो मंदिर के पीछे बना है जिसमे कक्षा 2 से 3 तक नीचे बैठ कर सिर्फ अ से अनार और आ से आम सीखे।फिर वो सरकारी स्कूल जो हमारे गाँव मे उस साल बना था जब मैं तीसरी कक्षा में थी ,4 और 5 वी कक्षा में मैन उस सरकारी स्कूल में शिक्षा ली।मैं अपने स्कूल की अव्वल विद्यार्थी थी।जितनी ज्यादा शरारत करती थी उतने अच्छे नंबर भी लाती थी।लेकिन अपनी शिक्षा उस वक्त कम लगी जब कस्बे के नंबर 1 स्कूल संत पाल्स में छठी में दाखिला लिया।गांव के सरकारी हिंदी मीडियम स्कूल से निकल कर कस्बे के ईसाई स्कूल में पढ़ना मेरे लिए चुनौती थी।
खैर आज मैं सिर्फ अपने गाँव के बारे में बात करना चाहती हूं।तो जा पहुंची मैं अपने उस पुराने सरकारी स्कूल के प्रांगण में ।जहां मुझे अपने सहपाठी आज भी शोर करते महसूस हो रहे थे।जैसे चारो तरफ आज भी मेरी ही कक्षा के बच्चे शोर कर रहे थे।वो पुरानी खुशबू खुद ही नाक में चढ़ आई।मैं मंत्र मुग्ध हुई जा रही थी।और धन्यवाद कर रही थी इस टेक्नोलॉजी का जिसमे हमारे पास ये स्मार्ट मोबाइल है जिसमे मैंने अपना ये पुराना बचपन कैद कर लिया और हर उस जगह की फोटी खींची जहां मेरी यादें बसी हैं।हाँ कुछ लोग मुझे उपहास की नजर से घूर रहे थे जैसे पागल गाँव मे ऊंट आया हो।लेकिन मुझे कब किसकी फिकर थी ।मैं तो अपने मीठे दिनों में खोई थी।
मेरा घर और घर के सामने वो बड़ा सा तालाब मुझे आज सब अच्छा और अलग लग रहा था शायद मैं आज ये सब दृश्य पुरानी आंखों से देख रही थी।मुझे आज भी मेरा बचपन इधर उधर खेलता नजर आ रहा था।जब अपने बेटे को उस पानी से भरे तालाब को देखते देखा तो फिर बचपन की शरारत याद आई और मैने अनायास ही सड़क से पत्थर उठा कर उसको दिए और बोला फेको पानी मे देखते हैं किसका पत्थर कितनी दूर जायगा।मेरे साथ मेरा प्रतिद्वंद्वी अलग सही लेकिन कुछ पल के लिए व्व पुरानी हंसी मेरे चेहरे पर लौट आई थी।
इस गांव से निकल कर ,संघर्ष कर के जिस मुकाम पर मैं पहुंची,उसकी सब तारीफ करते हैं लेकिन क्या किसी को अंदाजा है कि मैं अपना सुकून अपना बचपन अपनी कितनी खुशियां यहां छोड़ कर आगे निकली।जो आज भी मेरे दिल मे बसी हैं और हमेशा रहेंगी। क्योंकि वो पुराने दिन बहुत अच्छे थे।

प्रीति राजपूत शर्मा
21 जुलाई 2020

टिप्पणियाँ

kuch reh to nahi gya

हाँ,बदल गयी हूँ मैं...

Kuch rah to nahi gaya

बस यही कमाया मैंने