बचपन मे उलझा है मन

बचपन की कड़ियाँ दिल के हर कोने से जुड़ी हैं आज भी,
हर हरकत ,हर शैतानी,कहीं ना कहीं अधूरी है आज भी।।
बड़े तो हो रहे हैं हम मगर,
दिल तो ठहरा है लड़कपन के उन पलो में।।
क्यों बड़े होकर भी दिल उलझता है,
उन अल्हड़ पलों में।।
याद आता है वो बचपन
जब मां खुद की खुशियां सिमेंट ना पाई थी।।
जब पहली बार मां बुलाया मैंने,
तो खुद को रोने से रोक ना पाई थी।।
पहले जिस गोद से निकलकर खेलने को भाग जाया करते थे,
आज उसी गोद मे सर रखकर सोने को तरसते हैं।।
कल पापा के बुलाने पर डर लगता था ,
कि बाते स्कूल की होगी
आज उनके पास बैठकर ,
दिल का हाल बताने को दिल करता है।।
जिस खाने को खाने में हज़ारो नखरे होते थे हमारे।
आज तरसते है,उस मां के हाथ के एक टुकड़े को...
याद आता है,कैसे भीगना अच्छा लगता था हर बारिश में,
अब क्यों बचकर निकलना शामिल है मजबूरी में।।
कैसे स्कूल की दीवारों पर प्रिंसिपल की फ़ोटो बनाते थे,
और जब देखते मुड़कर,
तो प्रिंसिपल को खुद को घूरते पाते थे।।
प्रिंसिपल के आफिस के बगल में थी क्लास हमारी,
फिर भी दीवाली के पटाखे तो क्लास में ही जलते थे।।
और जब बारी आती पनिशमेंट की,
तो एक के चक्कर मे सब मार खाते थे।।
कितनी शिकायते आती थी रोज घर,स्कूल से,
मग़र घमण्ड था अपने इन दो कानो पर,
सुना एक से तो निकाला एक से।।
आज एहसास होता है कि कितना सताया होगा सबको,
और अपने पागलपन पर नाज हुआ होगा खुद को।।
अब कहाँ वो यारो की यारी ,
जिसमे गालियों में भी प्यार टपकता था।
कमीने मारते थे ज्यादा नम्बर लाने पर,
मगर उसमे भी उनकी दुआओं का असर लगता था।।
कैसे क्लास रूम को सब्जी मंडी बनाया करते थे,
चिल्ला चिल्ला कर हर सब्जी का भाव लगाया करते थे।।
और जब मुड़ कर देखती 'सिस्टर मैरी' अपने बड़े चश्मो से,
तो शरीफ बनकर अपनी सीट पर बैठ जाया करते थे।।
उस वक्त बस बहाना चाहिए था ,टीचर्स को सताने का,
आज मन करता है,उनके पैरों में गिर कर माफी मांग लेने का।
कोई परवाह ही नही थी,कौन लड़का,कौन लड़की,
बस मतलब होता था तो टिफिन चुराकर खाने का,
जिन बालों को खींच खींच कर लड़ते थे हम,
आज उन्ही को जुल्फे कह कर कॉम्प्लिमेंट देते हैं।।
अब नही आता कोई पास नई नई बचकानी रिश्वतें लेकर,
जो काम पूरा करने के बदले मिलती थी।।
आज 5 स्टार में भी वो सुकून नही मिलता,
और तब इमली की टॉफी की डील फिक्स होती थी।।
आज झगड़ते हैं कि बिल हम पे करेंगे,
तब तो कॉउंटरी करने को लड़ते थे,।।
जिसकी जेब मे कंजूसी भरी होती थी,
उसको चिढा चिढा कर खाया करते थे।।
वो गर्म समोसे जो स्कूल के फील्ड में बनते थे,
गरम खाने की गलती  खुद करते,
और गालियां बेचारे अंकल को दिया करते थे।।
याद आती है वो साइकिल रेस,
जो हर कोई जीतना चाहता था मुझसे।।
मगर सपना पूरा ना हुआ किसी का
ये सोच कर आज भी सीना चौड़ा हो जाता है फक्र से।।
काश लौट आये वो पल एक बार फिर से।
आज थक गए ढूंढ ढूंढ कर उन दोस्तो को इंटरनेट पर,
मिल जाये वो सारे कमीने तो गप शप मारे फिर से बैठ कर



टिप्पणियाँ

kuch reh to nahi gya

हाँ,बदल गयी हूँ मैं...

Kuch rah to nahi gaya

बस यही कमाया मैंने