काश मैं पागल होती

                                            
" काश मै पागल होती "  मुझे किसी अच्छे बुरे की  पहचान ही  ना होती। .कितना  अच्छा होता जब किसी के अच्छे बुरे होने से मुझे कोई फर्क ही न पड़ता। काश मैं पागल होती तो छोटी सी उम्र में ही लड़के और लड़की का फर्क मुझ पर थोपा ना गया होता,कितना अच्छा होता की मुझे अपने हक़ के लिए झूझना ही ना पड़ता। काश मैं पागल होती ,तो हज़ारो सपने मुझे रात भर ना जगातेकितना अच्छा होता जब उम्मीदें मुझे न रुलाती।न मुझे किसी के आने से फर्क पड़ता ,न किसी के जाने का दुःख होता।मैं बिना किसी के डर से सड़को पर घूम पाती।ना मुझे पहनावे का सोचना होता न इस समाज की लालची नजरो से नजरे झुकानी पड़ती। कितना अच्छा होता जब मुझे किसी की फ़िक्र न होती ,काश मैं पागल होती तो समाज में आगे निकल जाने या पीछे रह जाने की चिंता मुझे न सताती,कितना अच्छा होता जब मुझे पता ही ना होता की मैं तो बचपन से कठपुतली हूँ ,मुझे पता ही न होता की कब मेरे हक़ और हकदार बदल गए। काश मैं पागल होती तो बिना गलती की सजाएँ न काटी होती,कितना अच्छा होता जब मुझे पता ही न चलता की किसी ने मेरे विश्वास को रोंध दिया,न मुझे विश्वास करना आता ,ना उसके टूट जाने का मलाल होता।
काश मैं पागल होती तो ये पुरुष प्रधानता से निपट जाने की चाहत दिल में ही न दब जाया करती। कितना अच्छा होता की मैं जब मर्जी जो मर्जी कर पाती।मुझे फर्क ही न पड़ता की मैंने क्या गलत किया क्या सही किया क्योंकि मुझे तो सही गलत का फर्क ही समझ ना आता।काश मैं पागल होती तो रोज समाज में हो रहे गुनाह,मुझे रात भर परेशां ना करते ,कितना अच्छा होता की मुझे पता ही नहीं होता की बलात्कार और प्यार में फर्क क्या है,किसी की चीख मुझे न सताती,।काश मैं पागल होती तो नारी अधिकारो का जूनून मुझमे न होता।कितना अच्छा होता जब इंसान और किन्नर के बीच का भेद भाव मुझे ना सताता।उनकी आँखों में छुपा दर्द मुझे नजर ही ना आता।काश मैं पागल होती तो गरीब कौन अमीर कौन मुझे पता ही ना चलता।कितना अच्छा होता जब गरीब के फटे कपड़ो से दीखते अंग और अमीरो के दिखावे से दिखे अंग मुझे उनके बीच का फर्क ही ना समझाता ।काश मैं पागल होती तो मुझे किसी के हंसी के और किसी के गम के आंसुओ की कीमत पता ना चलती।कितना अच्छा होता न मैं किसी भरोसे की हकदार होती ,ना मैं किसी पर भरोसा करती।मुझे पता ही ना होता किसने खुदगर्जी में मुझसे नाता जोड़ा किसने मेरी अच्छाई देख कर मुझे अपनाया ।काश मैं पागल होती तो लोगो के चेहरे पर के मुखोटों पर मुझे आज हंसी ना आती।कितना अच्छा लगता जब किसी के सच और झूट से मेरी जिंदगी न बदल जाती। काश मैं पागल होती न मेरे लिए कोई जरूरी होता न मैं किसी की जरुरत होती।कितना अच्छा होता जब कुछ ईंटो के जुड़ जाने पर लोगो के बंगले और झोपड़े का अहंकार मुझे समझ न आता।काश मैं पागल होती तो ये सरे फर्क मेरे लिए कोई मायने ही ना रखते ।शायद मैं आज से ज्यादा खुश होती,शायद मैं आज से ज्यादा लापरवाह होती,शायद मैं आज से ज्यादा स्वतंत्र होती।काश मैं पागल होती।
जीवन के एक पड़ाव पर हर स्त्री की मनोदशा को दर्शाते मेरे ये शब्द किसी की निजी जिंदगी को नहीं दर्शाते।

प्रीती राजपूत शर्मा

5 दिसंबर 2016
   

टिप्पणियाँ

kuch reh to nahi gya

हाँ,बदल गयी हूँ मैं...

Kuch rah to nahi gaya

बस यही कमाया मैंने